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शतरंग के खिलाड़ी


चाकर तक नित्य द्वेष-चूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे-बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे, किसी को इसकी चाट पड़े, आदमी दीन दुनिया किसी के काम का नहीं रहता। न घर का न घाट का। बुरा रोग है। यहाँ तक कि मिरजा की बेगम साहब को इससे इतना द्वेष था कि अवसर खोज-खोज कर पति को लताड़ती थीं; पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था। वह सोती ही रहती थीं, तब तक उधर बाजी बिछ जाती थी। और रात को जब सो जाती थीं, तब कहीं मिरेजाजी घर में आते थे। हाँ नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थीं-क्या पान मांगे हैं? कह दो आकर ले जायें। खाने की फुरसत नहीं है? ले जाकर खाना सिर पर पटक दो, खायें चाहे कुत्ते को खिलावें। पर दूबदू वह भी कुछ न कह सकती थीं। उनको अपने पति से उतना मलाल न था, जितना मीरसाहब से। उन्होंने उनका नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था। शायद मिरजाजी अपनी सफाई देने के लिए सारा इलजाम मीरसाहब ही के सिर थोप देते थे।

एक दिन बेगम साहबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौंडी से कहा-जाकर मिरजासाहब को बुला ला। किसी हकीम के यहाँ से दवा लावें। दौड़ जल्दी कर। लौंडी गई, तो मिरजाजी ने कहा-चल अभी आते हैं। बेगम साहबा का मिज़ाज़ गरम था। इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो, और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौंडी से कहा-जाकर