"मैं अर्ज नहीं कर सकती।"
"कैदखाने की चाभी मुझे दे, मैं अभी उसे छुड़ाती हूँ।"
"आपको अपने कमरे से बाहर जाने का हुक्म नहीं है।"
"तब क्या मैं भी कैद हूँ?"
"जी हाँ।"
सलीमा की आँखों में आँसू भर आए। वह लौटकर मसनद पर पड़ गई, और फूट-फूट कर रोने लगी, कुछ ठहरकर उसने एक खत लिखा––
"हुजूर! मेरा कुसूर माफ़ फ़र्मावें। दिन भर की थकी होने से ऐसी बेसुध सो गई कि हुजूर के इस्तक़बाल में हाज़िर न रह सकी। और, मेरी उस प्यारी लौंड़ी की भी जाँ-बख्शी की जाय। उसने हुजूर के दौलतखाने में लौट आने की इत्तिला मुझे वाजिबी तौर पर न देकर बेशक भारी कुसूर किया है; मगर वह नई, कमसिन, ग़रीब और दुखिया है।
कनीज़
सलीमा"
चिट्ठी बादशाह के पास भेज दी गई। बादशाह की तबीयत बहुत ही नासाज़ थी। तमाम हिन्दुस्तान के बादशाह की औरत फ़ाहशा निकले! बादशाह अपनी आँखों से परपुरुष को उसका मुँह चूमते देख चुके थे! वह गुस्से से तलमला रहे थे, और ग़म गलत करने को अन्धाधुन्ध शराब पी रहे थे। ज़ीनतमहल मौक़ा