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गल्प-समुच्चय
लगी। मगर खिड़कियाँ बाहर से बन्द थीं। सलीमा ने विस्मय से मन-ही-मन कहा––"क्या बात है? लौंड़ियाँ सब क्या हुईं?"
वह द्वार की तरफ चली! देखा, एक तातारी बाँदी नंगी तलवार लिए पहरे पर मुस्तैद खड़ी है। बेगम को देखते ही उसने सिर झुका लिया।
सलीमा ने क्रोध से कहा––"तुम लोग यहाँ क्यों हो?"
"बादशाह के हुक्म से।"
"क्या बादशाह आ गये?"
"जी हाँ।"
"मुझे इत्तिला क्यों नहीं की?"
"हुक्म नहीं था।"
"बादशाह कहाँ हैं?"
"ज़ीनतमहल के दौलतख़ाने में।"
सलीमा के मन में अभिमान हुआ। उसने कहा––
"ठीक है, खुबसूरती की हाट में जिनका कारबार है, वे मुहब्बत को क्या समझेंगे? तो अब ज़ीनतमहल की किस्मत खुली?"
तातारी स्त्री चुपचाप खड़ी रही। सलीमा फिर बोली––"मेरी साकी कहाँ है?"
"कैद में!"
"क्यों?"
"जहाँपनाह का हुक्म।"
"उसका कुसूर क्या था!"