पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/८४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७३ गर्भ-रएडा-रहस्य। (२५६) श्री बराह भगवान, घुरघुरा कर यों बोले । प्रथम हमारे साथ, शूकरी बन कर होले ॥ चलदे सबको छोड़, न मन मैला कर प्यारी। देख महासुखमूल, मनोहर माँद हमारी॥ (२६०) कर सकता है कौन, हमारी सी शुभ करणी। धर काँपों पर, मार, असुर को लाये धरणी ॥ यश का सूचक श्वेत , शब्द पदवी इव धारा । होगा तुझ पर क्यों न,आदिअधिकार हमारा॥ (२६१) शूकर का विटवाद, सुना सब ने रद खींसे। बदल कनौती श्याम, घुड़मुहाँ हेकड़ हीसे ।। मैं ने पर-हित-हेतु, कण्ठ अपना कटवाया। हयग्रीव शुभ नाम, अश्वमुख होकर पाया। (२६२) पर-हितकारी धीर, धर्म पर मरने वाला। जाति, देश पर प्राण, निछावर करने वाला ॥ कहिये अपना ठीक, जोड़सम किसको मैं। यदि चुप हो तो क्यों न, वरूँ पहले इसको मैं॥

  • श्वतवाराह।