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६६ गर्भ-रएडा-रहस्य । (२४३) जो न हंसगुणशील, समालोचक बनते थे धार कुपक्ष-कुदाल, खानि छल की खनते थे। वे कलुषित लिक्खाड़, पकड़ कीचड़ में डाले । भिनक रहे थे अङ्ग, वदन थे सबके काले॥ (२४४) अगुआ बन जो दुष्ट, देश भर में बकते थे पिछलगुओं की छाक, छीन छल से छकते थे। वे जग-वञ्चक धर्म, लिङ्गधर लीडर सारे । करते शोणित-पान, गटकते गन्द निहारे । (२४५) जिन से बालक वेद, दाम देकर पढ़ते थे। जिनके कुल में न्याय, नीति-निन्दक बढ़ते थे। जिनके थोक कुदान, सटकते थे लड़ते थे उन ठगियों पे बाँस, बेंत, चाबुक पड़ते थे । जखई, मियाँ-मदार, भूत, जिन पूजन हारे। पिटते थे अनरीति, निरत नारी-नर सारे । गणिका, कुलटायूथ, अधीर पुकार रहे थे। गरम लोह के जार, बिजार पजार रहे थे। ।