पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/७७

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गर्भ-रण्डा-रहस्य । (२३१) आसन दे कर जोड़, कहा किस कारण आई। मैं ने सुन इस भाँति, बात मन की बतलाई ॥ आज छोड़ सब काज, दूत इनपूत * तुम्हारे। लेकर मुझ को साथ, नरक दिखलादें सारे ॥ (२३२) सुनकर मेरी बात, हँसे यमराज प्रतापी। कहा यथारूचि देख, नारकी अगणित पापी॥ साथ किये निज दूत, मुझे नरकों पर लाये । रोरव, असिपत्रादि, भयानक दृश्य दिखाये। (२३३) दहक रही थी आग, दुष्ट हिंसक जलते थे। तप्त तलों पर जार, चोर, वञ्चक चलते थे॥ मल, कचलोहू, राद, मूत्रमिश्रित सड़ते थे। जिनमें ऊत, उतार, पतित, पापी पड़ते थे। (२३४) मत्त मनोमुख मूह, सनातन-धर्म-विरोधी। कटुभाषी, कुलबोर, कलङ्कित, कपटी, क्रोधी॥ अभिमानी, अनमेल, वेदनिन्दक, मतवाले। सहते थे सब थोक, नरक के कष्ट कसाले ॥

  • यमराज।