पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/७०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गर्भ-रण्डा रहस्य । (२०३) सुन दाहक दुर्वाद, न अपना धर्म बिगाड़ा। बिगड़ी मैं इस भाँति, मत्त मुनि कामद झाड़ा॥ कौशकपन को त्याग, उग्र तप-तेज पसारा। परमहंस ब्रह्मर्षि, वने पर मार न मारा। (२०४) बाबा ! रति विपरीत, रीति पर ठोकर मारो। वाधक प्रेय विहाय, श्रेय साधक बल धारो॥ सुन मेरी फटकार, गाधिनन्दन सकुचाये। उद्धत पथ से लौट, साधुपद्धति पर आये ॥ मूंद प्रचण्ड प्रमाद, ज्ञान गौरव दरसाया। मनसिज को धिक्कार, गिरा-रस यों बरसाया॥ विटिया ! लुटा न आज, योगसाधन-धन मेरा। हुआ बड़ा अपराध, करूँ अब क्या हित तेरा॥ (२०६) समझी हित की बात, कहा उपकार कीजिये। दीनदयाल सदेह, मुझे सुरधाम दीजिये। "एवमस्तु” शुभ शब्द, सुना मुनि से बिलुड़ीमें। हुआ मनोरथ सिद्ध, गगन की ओरउड़ी मैं॥ (२०५)