पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/६९

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गर्भ-रएडा-रहस्य । ( १६६) विधवा-दल से वैर, लेरहे हैं बल कब का। हम दुखियों का शाप, नाश करदेगा सब का ॥ कब तक अत्याचार, निरङ्कुश नीच करेंगे। आ पहुँचा अब काल, प्रचण्ड पिशाच मरेंगे। (२००) कमला ! तुझे न प्रेम, जाति-कुल-पञ्चों पर है। नेक न भारत-धर्म, महामण्डल का डर है ॥ यों सुनाय सिर पीट, निरख मुझको मा रोई। में चलदी चुपचाप, चढ़ी छत पर जा सोई॥ (२०१) पौराणिक भ्रमजाल, पाल पर किया परेखा। तुरत आगई नींद, विलक्षण सपना देखा ॥ तर्कहीन हठवाद, महातम का पूषण है। सुन लो स्वप्न-प्रसङ्ग, असम्भव का भूषण है । (२०२) जाग्रत का प्रतिविम्ब, स्वप्न उमगा योमन में। मुनिवर विश्वामित्र, मिले फिरते कानन में ॥ बोले विरति बिसार, मेनका कर मनभाई। जनले अबकी बार, भरत जननी का भाई ॥