पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/६४

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(१८१) गर्भ-रएडा-रहस्य । (१८०) वोली रसिक सुजान, फाग अब आकर खेलो। सर्व समर्पण-रूप, आँस इस असि की झेलो। निकलो खोल कपाट, निरखलो नारि नवेली! फिर न मिलेगी और, जन्म भर मुझ सी चेली !! गुप्त रहे रहे गुरुदेव, न भीतर से कुछ बोले। भूलगये रस-रीति, अनीति किवाड़ नखोले। कुटनी भी भयभीत, ससकती रही न बोली। अस्त हुई इस भाँति, मस्त गुरुकुल की होली। (९८२) ब्रह्मचर्य-व्रत-शील, कलेवर ने जय पाई। धार कृपाण निशङ्क, निडर डेरे पर आई। मन्दिर के दरबान, रहे बैठे कर मलते। हिजड़ों के हथियार, भला मुझपैक्या चलते॥ (१८३) मुझ को देख सरोष, न मुख जननी ने खोला। मदन कलेजा थाम, गिड़गिड़ा कर योबोला। ।

  • मदन = भदनदत्त-गर्भरण्डा की मा का वैतनिक प्रेमी भय-

भीत होकर क्या कहने लगा ! वाहरे कलियुग !!