पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/५९

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गर्भ-रएडा-रहस्य। रवितनया में न्हाय, किया गुरुकुल में डेरा । निरखे गोकुल-नाथ, टिकाअस्थिरमन मेरा ॥ मन्दिर में रसराज, वसन्त विराज रहे थे। बाजे विविध मनोज, विजय के बाज रहे थे। पुष्ट प्रमाण प्रयुक्त, पाटिया लटक रहा था। धन्य तदङ्कित पद्य, सभ्यता सटक रहा था। पहुँचे भावुक भक, प्रवल प्रभुता के चेरे । सपरिवार सस्त्रीक, शिष्य, सेवक बहुतेरे ॥ ॥ आपस में मिल भेट, जगद्गुरु के गुण गाये। गोकुल में कर वास, दिवस दो तीन बिताये ॥ (१६८) आया दिन सुख-मूल, गूढ़ गौरव गरवीला । उछल पड़ी गोपाल, लाल कृतलौकिक लीला॥ (१६७ )

  • (होलिकोत्सव की सूचना)

श्रीकृष्णः शरणं मम । (शशिधरटत्त) चले चरचा चित चोरी की। चढ़े रस-रंगत होरी की। उते हरि-भक्ति तिहारी पै, इते ब्रजराज विहारी पै ॥