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४६ गर्भ-रसडा-रहस्य। (१६२) मैं ने अभिरुचिरूप, चित्त की चाह उगलदी। मदनदत्त * के साथ, मुझे लेकर मा चलदी॥ पहुँची मथुरा रेल, लाँघ यमुना के पुल को। ताँगे पर चढ़ कूच, तुरन्तकिया गोकुल को॥ मग में वन, उद्यान, विहार, निकुञ्ज निहारे नवीन प्रसून, पीत पाटल अरुणारे॥ फूल फूल ऋतु-राज, बना वञ्चक बहुरङ्गी । माना सहित प्रमाणा, मनोभव काअति सङ्गी॥ । पत्र
- मदनदत्त-गर्भरण्डा की माता का वैतनिक-मित्र ।
गर्भरण्डा का प्रमाणभूत- कवित्त । शकर फीले एल फूले है कि कोमलना, काल ने कठिनता के जाल में फैमाई है। ठोर और सेमर अंगारे वरनावत है, भाग उड़ किशुक समह मे समाई है मुखगयो सारे विरहीन को रुधिर सोई, लालिमा नवीन रु, पातन पं छाई है । देख दुखदाई पञ्चाण की पठाई माई, व्याधि विधवान की वसन्तऋतु श्राई है ।।