पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/४४

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गर्भ-रण्डा-रहस्य। । १२५) गोकुलपति गोविन्द, मिलनकी रीतिसिखादी। परम रम्य गोलोक,-धाम की सड़क दिखादी॥ इस प्रकार गोस्वामि, काट मेरे अघ-दल को। दे उत्तम उपदेश, सिधारे व्रज-मण्डल को॥ (१२६) मा ने अति सुख मान, सुमङ्गल गान कराया। ललनागण में बैठ, भजन मैं ने गढ़ गाया। सुनतेही वह गीत:, हँसी चुनमुन की मैया । देकर मुझे असीस, निछावर किया रुपैया ॥

  • (गर्भरण्डाका गीत)

पाये श्रीगरु प्रेम पुजारी ॥ टेक ॥ मोहनमन्त्र कान में फूंका, हार बनी हरिप्यारी । पीक चटाय बनाली चेली, अंगुली दाब दुलारी ॥ पाये श्रीगुरु प्रेम पुजारी॥ भाति भांति के भोग लगाये, लेकर भेट करारी । पान खाय पौढ़े पलका प, धर्मवीर व्रत-धारी ॥ पाये श्रीगुरु प्रेम पुजारी॥ पुष्ट पन्थ के उपदेशो से, कुचली दुविधा दारी । फूटे मुण्ड ताप-त्रिशिरा के, हित की ठोकर मारी ।। पाये श्रीगुरु प्रेम पुजारी ॥ मैं रडिया शङ्कर स्वामी ने, भवसागर से तारी । घर ही मे गोलोक दिखाया, बलिहारी बलिहारी !! पाये श्रीगुरु प्रेम पुजारी॥ तुलसी।