पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/४२

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गर्भ-रण्डा-रहस्य। (११७) झुलसे कोमल अङ्ग, यथा जलगया जवासा । अँसुओं से बद होड़, न कुछ बरसा चौमासा॥ अँखियों की जय वोल, गई बरसात बिचारी। खंजन दिये दिखाय, शरद ने आँख उघारी॥ (११८) रहा न भू पर पङ्क, न ऊपर बदली छाई । कर सुन्दर शृङ्गार, दिवाली दुलहिन आई। करने लगा प्रकाश, तले धर अन्ध अँधेरा। कजल उगले देख, दिया उज्जल मुख तेरा ॥ (११६) चार मास भरपूर, सर्व सुर सो कर जागे । कुम्भकर्ण-पद पाय, न सोते असुर अभागे॥ नेक न अज्ञ अदेव, देव-दल से डरते हैं। विधवापन का बोझ, बच्चियों पर धरते हैं। मङ्गलमल महेश, तुझे मुनि बतलाते हैं। जीव तुझे अपनाय, अमर-पदवी पाते हैं। हे प्रभु परमोदार, सर्व सुखदाता वर दे। बन्धन काट कृपालु, मुक्त मुझको भी कर दे । (१२०)