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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(९८)


समझी रोग-निदान, कहानी सुन कर सारी।
फिर बोली कर हाय, चुनमुना की महतारी॥
मार मनोहर मार, पजारे मार न किस को।
क्या अब तू इस भाँति, रोक सकती है इस को॥

(९६)


मालिक ने अनखाय, शपथ खा कर तू छोड़ी।
सीता बन कर क्यों न, रही मन मार निगोड़ी॥
तू कर भोग-विलास, पवित्र प्रसन्न रहैगी।
यह मनोज की मार, बता किस भाँति सहैगी॥

(१००)


इस को अपना आप, स्वयंवर कर लेने दे।
मनमाना अनुरूप, वीर वर वर लेने दे॥
ठीक ठौर अपनाय, सदा सुख पाय टिकेगी।
इस प्रकार तू जाति, और कुलसे न छिकेगी॥

(१०१)


सुन कर बीले बोल, बहुत सकुची मा मेरी।
बोली बहिन अनर्थ,-भरी है अनुमति तेरी॥
दुहिता को यह घोर,-कुकर्म न करने दूँगी।
वर न दूसरी बार, किसी विधि वरने दूँगी॥