पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/३६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५
गर्भ-रण्डा-रहस्य।

सर असुरों की जाँच, घड़ी भर में बस होली।
हुआ न कुछ भी लाभ, पड़ोसिन फिर यों बोली॥

(९५)


बिटिया की सुन वीर, किसी से लगन लगी है।
ठगिया ने रस खेल, खिला कर ठीक ठगी है॥
इस पै उस के प्रेम,-प्रबल का भूत चढ़ा है।
आज वही अनुभूत, भयानक रोग बढ़ा है॥

(९६)


माता सुन कर बोल, उठी बस जान गई तू!
इस के मन का गूढ,-भेद पहँचान गई तू!!
मेरी विनय प्रमाण,-रूप से सब कह डाली।
अपने वज्र समान, कथन की छाप छुपाली॥

(९७)


अस्थिर मन*[], आलस्य, अरुचि, तन्द्रा रहती है।
सूख चले सब अङ्ग, हृदय-पीड़ा सहती है॥
कहती है कटुशब्द, बहुत ही कम खाती है।
कुल-पद्धति को गैल, नरक की बतलाती है॥


    • श्लोक—कामज चित्तविभ्रशस्तन्द्राऽलस्यमभोजनम्।

    हृदये वेदना चास्य गात्रं च परिशुष्यति
    —श्रीमाधवाचार्यः