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गर्भ-रण्डा-रहस्य।

(३)


उड़ा न वह वैधव्य, उड़ाते हैं सब जिस को।
मिलता मुझ को छोड़, 'गर्भ-रण्डा' पद किसको।
जिस रहस्य को सौंप, शुद्ध अमरत्व मरूँगी।
सुनलो उस का सार, न कुछ विस्तार करूँगी।

(४)


एक बटुक ने हाथ, पकड़ जननी का देखा।
सामुद्रिक-फल जाँच, बाँच कर विधि की रेखा॥
बोला उदर विलोक, जनोंगी विधवा लड़की।
सुनते ही कटुवाद, आग मा के उर भड़की।

(५)


करके अँखियाँ लाल, लताड़ा उस पामर को।
उठजा ऊत उतार, अनारी अपने घर को॥
वन समान कठोर, वचन सुन वञ्चक तेरा।
उछल रहा है हाय!, कलेजा अब तक मेरा॥

(६)


उचित गालियाँ खाय, महाखल यों फिर बोला।
किया न तुम ने न्याय, न श्रीमुख सादर खोला॥
पढ़ कुमंत्र दो चार, विलक्षण प्रश्न बताये।
सब के उत्तर ठीक, समझ मा के मन भाये॥