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गुडिया और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे, इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके खिलौने थे। वह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था, अब उसका सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी। गाँव में कोई उत्सव होता या कोई त्योहार पड़ता, तो वह उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आँखों में जंचता ही न था। एक दिन दीनदयाल लौटे, तो मानकी के लिए एक चंद्रहार लाए। मानकी को यह इच्छा बहुत दिनों से थी। यह हार पाकर वह मुग्ध हो गई। जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, पिता से बोली–बाबूजी, मुझे भी ऐसा ही हार ला दीजिए।

दीनदयाल ने मुसकराकर कहा-ला दूंगा, बेटी!

'कब ला दीजिएगा?'

'बहुत जल्द।'

बाप के शब्दों से जालपा का मन न भरा।

उसने माता से जाकर कहा-अम्माँजी, मुझे भी अपना-सा हार बनवा दो।

माँ-वह तो बहुत रुपयों में बनेगा, बेटी!

जालपा—तुमने अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवाती?

माँ ने मुसकराकर कहा-तेरे लिए तेरी ससुराल से आएगा।

यह हार छह सौ में बना था। इतने रुपए जमा कर लेना दीनदयाल के लिए आसान न था। ऐसे कौन बड़े ओहदेदार थे! बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आई। जीवन में फिर कभी इतने रुपए आएँगे, इसमें उन्हें संदेह था। जालपा लजाकर भाग गई, पर ये शब्द उसके हृदय में अंकित हो गए। ससुराल उसके लिए अब उतनी भयंकर न थी। ससुराल से चंद्रहार आएगा, वहाँ के लोग उसे माता-पिता से अधिक प्यार करेंगे, तभी तो जो चीज ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहाँ से आएगी।

लेकिन ससुराल से न आए तो? उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह हो चुके थे, किसी की ससुराल से चंद्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल से भी न आया तो? उसने सोचा तो क्या माताजी अपना हार मुझे दे देंगी? अवश्य दे देंगी।

इस तरह हँसते-खेलते सात वर्ष कट गए और वह दिन भी आ गया, जब उसकी चिरसंचित अभिलाषा पूरी होगी।