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आदमी आएगा जरूर।

रमा ने उसका कोई जवाब न दिया, आगे बढ़ा। इधर आया था कि कुछ काम निकलेगा, उलटे तकाजा सहना पड़ा। कहीं दुष्ट सचमुच बाबूजी के पास तकाजा न भेज दे। आग ही हो जाएँगे। जालपा भी समझेगी, कैसा लबाडिया आदमी है? इस समय रमा की आँखों से आँसू तो न निकलते थे, पर उसका एक-एक रोआँ रो रहा था। जालपा से अपनी असली हालत छिपाकर उसने कितनी भारी भूल की! वह समझदार औरत है, अगर उसे मालूम हो जाता कि मेरे घर में भूजी भाँग भी नहीं है तो वह मुझे कभी उधार गहने न लेने देती। उसने तो कभी अपने मुँह से कुछ नहीं कहा। मैं ही अपनी शान जमाने के लिए मरा जा रहा था। इतना बड़ा बोझ सिर पर लेकर भी मैंने क्यों किफायत से काम नहीं लिया? मुझे एक-एक पैसा दाँतों से पकड़ना चाहिए था। साल भर में मेरी आमदनी सब मिलाकर एक हजार से कम न हुई होगी। अगर किफायत से चलता तो इन दोनों महाजनों के आधे-आधे रुपए जरूर अदा हो जाते, मगर यहाँ तो सिर पर शामत सवार थी। इसकी क्या जरूरत थी कि जालपा मुहल्ले भर की औरतों को जमा करके रोज सैर करने जाती। सैकड़ों रुपए तो ताँगे वाला ले गया होगा, मगर यहाँ तो उस पर रोब जमाने की पड़ी हुई थी। सारा बाजार जान जाए कि लाला निरे लफंगे हैं, पर अपनी स्त्री न जानने पाए! वाह री बुद्धि, दरवाजे के लिए परदों की क्या जरूरत थी! दो लैंप क्यों लाया, नई निवाड लेकर चारपाइयाँ क्यों बिनवाई, उसने रास्ते ही में उन खर्चों का हिसाब तैयार कर लिया, जिन्हें उसकी हैसियत के आदमी को टालना चाहिए था। आदमी जब तक स्वस्थ रहता है, उसे इसकी चिंता नहीं रहती कि वह क्या खाता है, कितना खाता है, कब खाता है, लेकिन जब कोई विकार उत्पन्न हो जाता है तो उसे याद आती है कि कल मैंने पकौडियाँ खाई थीं। विजय बहिर्मुखी होती है, पराजय अंतर्मुखी।

जालपा ने पूछा-कहाँ चले गए थे, बड़ी देर लगा दी? रमानाथ—तुम्हारे कारण रतन के बँगले पर जाना पड़ा। तुमने सब रुपए उठाकर दे दिए, उसमें दो सौ रुपए मेरे भी

जालपा तो मुझे क्या मालूम था, तुमने कहा भी तो न था, मगर उनके पास से रुपए कहीं जा नहीं सकते, वह आप ही भेज देंगी।

रमानाथ—माना, पर सरकारी रकम तो कल दाखिल करनी पड़ेगी।

जालपा—कल मुझसे दो सौ रुपए ले लेना, मेरे पास हैं। रमा को विश्वास न आया। बोला-कहीं हों न तुम्हारे पास! इतने रुपए कहाँ से आए? जालपा—तुम्हें इससे क्या मतलब, मैं तो दो सौ रुपए देने को कहती हूँ।

रमा का चेहरा खिल उठा। कुछ-कुछ आशा बँधी। दो सौ रुपए यह दे दे, दो सौ रुपए रतन से ले लूँ, सौ रुपए मेरे पास हैं ही, तो कुल तीन सौ की कमी रह जाएगी, मगर यही तीन सौ रुपए कहाँ से आएँगे? ऐसा कोई नजर न आता था, जिससे इतने रुपए मिलने की आशा की जा सके। हाँ, अगर रतन सब रुपए दे दे तो बिगड़ी बात बन जाए। आशा का यही एक आधार रह गया था।

जब वह खाना खाकर लेटा तो जालपा ने कहा-आज किस सोच में पड़े हो?