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संध्या हो गई थी, म्युनिसिपैलिटी के अहाते में सन्नाटा छा गया था। कर्मचारी एक-एक करके जा रहे थे। मेहतर कमरों में झाड़ लगा रहा था। चपरासियों ने भी जूते पहनना शुरू कर दिया था। खोंचेवाले दिन भर की बिक्री के पैसे गिन रहे थे, पर रमानाथ अपनी कुरसी पर बैठा रजिस्टर लिख रहा था। आज भी वह प्रात:काल आया था, पर आज भी कोई बड़ा शिकार न फँसा, वही दस रुपए मिलकर रह गए। अब अपनी आबरू बचाने का उसके पास और क्या उपाय था! रमा ने रतन को झांसा देने की ठान ली। वह खूब जानता था कि रतन की यह अधीरता केवल इसलिए है कि शायद उसके रुपए मैंने खर्च कर दिए। अगर उसे मालूम हो जाए कि उसके रुपए तत्काल मिल सकते हैं, तो वह शांत हो जाएगी। रमा उसे रुपए से भरी हुई थैली दिखाकर उसका संदेह मिटा देना चाहता था। वह खजाँची साहब के चले जाने की राह देख रहा था। उसने आज जान-बूझकर देर की थी। आज की आमदनी के आठ सौ रुपए उसके पास थे। इसे वह अपने घर ले जाना चाहता था। खजाँची ठीक चार बजे उठा। उसे क्या गरज थी कि रमा से आज की आमदनी माँगता। रुपए गिनने से भी छुट्टी मिली। दिन भर वही लिखते-लिखते और रुपए गिनते-गिनते बेचारे की कमर दुःख रही थी। रमा को जब मालूम हो गया कि खजाँची साहब दूर निकल गए होंगे, तो उसने रजिस्टर बंद कर दिया और चपरासी से बोला-थैली उठाओ। चलकर जमा कर आएँ।

चपरासी ने कहा-खजाँची बाबू तो चले गए!

रमा ने आँखें गाड़कर कहा-खजाँची बाबू चले गए! तुमने मुझसे कहा क्यों नहीं? अभी कितनी दूर गए होंगे?

चपरासी–सड़क के नुक्कड़ तक पहुँचे होंगे।

रमानाथ—यह आमदनी कैसे जमा होगी?

चपरासी–हुकुम हो तो बुला लाऊँ?

रमानाथ-अजी, जाओ भी, अब तक तो कहा नहीं, अब उन्हें आधे रास्ते से बुलाने जाओगे। हो तुम भी निरे बछिया के ताऊ, आज ज्यादा छान गए थे क्या? खैर, रुपए इसी दराज में रखे रहेंगे। तुम्हारी जिम्मेदारी रहेगी।

चपरासी-नहीं बाबू साहब, मैं यहाँ रुपया नहीं रखने दूंगा। सब घड़ी बराबर नहीं जाती। कहीं रुपए उठ जाएँ, तो मैं बेगुनाह मारा जाऊँ। सुभीते का ताला भी तो नहीं है यहाँ। रमानाथ–तो फिर ये रुपए कहाँ रखू?

चपरासी-हुजूर, अपने साथ लेते जाएँ। रमा तो यह चाहता ही था। एक इक्का मँगवाया, उस पर रुपयों की थैली रखी और घर चला। सोचता जाता था कि अगर रतन भभकी में आ गई, तो क्या पूछना! कह दूंगा, दो-ही-चार दिन की कसर है। रुपए सामने देखकर उसे तसल्ली हो जाएगी।

जालपा ने थैली देखकर पूछा-क्या कंगन न मिला?