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जालपा—यह तो बुरी विपत्ति गले पड़ी।

रमानाथ–विपत्ति कुछ नहीं है, सिर्फ यही खयाल है कि मेरा मकान इस काम के लायक नहीं। मेज, कुरसियाँ, चाय के सेट रमेश के यहाँ से माँग लाऊँगा, लेकिन घर के लिए क्या करूँ!

जालपा-क्या यह जरूरी है कि हम लोग भी दावत करें?

रमा ने ऐसी भद्दी बात का कुछ उत्तर न दिया। उसे जालपा के लिए एक जूते की जोड़ी और सुंदर कलाई की घड़ी की फिक्र पैदा हो गई। उसके पास कौड़ी भी न थी। उसका खर्च रोज बढ़ता जाता था। अभी तक गहने वालों को एक पैसा भी देने की नौबत न आई थी। एक बार गंगू महराज ने इशारे से तकाजा भी किया था, लेकिन यह भी तो नहीं हो सकता कि जालपा फटेहाल चाय-पार्टी में जाए। नहीं, जालपा पर वह इतना अन्याय नहीं कर सकता। इस अवसर पर जालपा की रूप-शोभा का सिक्का बैठ जाएगा। सभी तो आज चमाचम साडियाँ पहने हुए थीं। जड़ाऊ कंगन और मोतियों के हारों की भी तो कमी न थी, पर जालपा अपने सादे आवरण में उनसे कोसों आगे थी। उसके सामने एक भी नहीं जंचती थी। यह मेरे पूर्व कर्मों का फल है कि मुझे ऐसी सुंदरी मिली। आखिर यही तो खाने-पहनने और जीवन का आनंद उठाने के दिन हैं। जब जवानी ही में सुख न उठाया, तो बुढापे में क्या कर लेंगे! बुढ़ापे में मान लिया धन हुआ ही तो क्या? यौवन बीत जाने पर विवाह किस काम का? साड़ी और घड़ी लाने की उसे धुन सवार हो गई। रातभर तो उसने सब्र किया। दूसरे दिन दोनों चीजें लाकर ही दम लिया। जालपा ने झुंझलाकर कहा-मैंने तो तुमसे कहा था कि इन चीजों का काम नहीं है। डेढ़-सौ से कम की न होंगी?

रमानाथ-डेढ़ सौ! इतना फजूल-खर्च मैं नहीं हूँ।

जालपा–डेढ़ सौ से कम की ये चीजें नहीं हैं।

जालपा ने घड़ी कलाई में बाँध ली और साड़ी को खोलकर मंत्रमुग्ध नजरों से देखा। रमानाथ–तुम्हारी कलाई पर यह घड़ी कैसी खिल रही है! मेरे रुपए वसूल हो गए। जालपा-सच बताओ, कितने रुपए खर्च हुए? रमानाथ-सच बता दूँ, एक सौ पैंतीस रुपए। पचहत्तर रुपए की साड़ी, दस के जूते और पचास की घड़ी। जालपा—यह डेढ़ सौ ही हुए। मैंने कुछ बढ़ाकर थोड़े कहा था, मगर यह सब रुपए अदा कैसे होंगे? उस चुडैल ने व्यर्थ ही मुझे निमंत्रण दे दिया। अब मैं बाहर जाना ही छोड़ ट्रॅगी रमा भी इसी चिंता में मगन था, पर उसने अपने भाव को प्रकट करके जालपा के हर्ष में बाधा न डाली। बोलासब अदा हो जाएगा। जालपा ने तिरस्कार के भाव से कहा-कहाँ से अदा हो जाएगा, जरा सुनें। कौड़ी तो बचती नहीं, अदा कहाँ से हो जाएगा? वह तो कहो बाबूजी घर का खर्च सँभाले हुए हैं, नहीं तो मालूम होता। क्या तुम समझते हो कि मैं गहने और साड़ियों पर मरती हूँ? इन चीजों को लौटा आओ। रमा ने प्रेमपूर्ण नजरों से कहा-इन चीजों को रख लो। फिर तुमसे बिना पूछे कुछ न लाऊँगा।

संध्या समय जब जालपा ने नई साड़ी और नए जूते पहने, घड़ी कलाई पर बाँधी और आईने में अपनी सूरत देखी तो मारे गर्व और उल्लास के उसका मुखमंडल प्रज्वलित हो उठा। उसने उन चीजों के लौटाने के लिए सच्चे दिल से