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रमा के परिचितों में एक रमेश बाबू म्यूनिसिपल बोर्ड में हेड क्लर्क थे। उम्र तो चालीस के ऊपर थी, पर थे बड़े रसिक। शतरंज खेलने बैठ जाते तो सवेरा कर देते। दफ्तर भी भूल जाते। न आगे नाथ, न पीछे पगहा। जवानी में स्त्री मर गई थी, दूसरा विवाह नहीं किया। उस एकांत जीवन में सिवा विनोद के और क्या अवलंब था। चाहते तो हजारों के वारे-न्यारे करते, पर रिश्वत की कौड़ी भी हराम समझते थे। रमा से बड़ा स्नेह रखते थे और कौन ऐसा निठल्ला था, जो रात-रात भर उनसे शतरंज खेलता। आज कई दिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थे। शतरंज की एक बाजी भी न हुई। अखबार कहाँ तक पढ़ते। रमा इधर दो-एक बार आया अवश्य, पर बिसात पर न बैठा। रमेश बाबू ने मुहरे बिछा दिए। उसको पकड़कर बैठाया, पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा। बहू आई है, उसका मुँह देखेगा, उससे प्रेमालाप करेगा कि इस बूढ़े के साथ शतरंज खेलेगा! कई बार जी में आया, उसे बुलवाएँ, पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा, रह गए। कहाँ जाएँ, सिनेमा ही देख आवें, किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था, पर इस वक्त उन्हें सिनेमा के सिवा और कुछ न सूझा। कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में कदम रखा। रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा पहुंचे और उसका हाथ पकड़कर बोले–आइए, आइए, बाबू रमानाथ साहब बहादुर! तुम तो इस बुड्ढे को बिल्कुल भूल ही गए। हाँ भाई, अब क्यों आओगे? प्रेमिका की रसीली बातों का आनंद यहाँ कहाँ? चोरी का कुछ पता चला?

रमानाथ-कुछ भी नहीं।

रमेश बहुत अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं लिखाईं, नहीं तो सौ-दो सौ के मत्थे और जाते। बहू को तो बड़ा दुःख हुआ होगा?

रमानाथ-कुछ पूछिए मत, तभी से दाना-पानी छोड़ रखा है? मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं भाग जाऊँ। बाबूजी सुनते नहीं।

रमेश-बाबूजी के पास क्या कारूँ का खजाना रखा हआ है? अभी चार-पाँच हजार खर्च किए हैं, फिर कहाँ से लाकर गहने बनवा दें? दस-बीस हजार रुपए होंगे तो, अभी तो बच्चे भी तो सामने हैं और नौकरी का भरोसा ही क्या, पचास रुपए होता ही क्या है?

रमानाथ-मैं तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और मौज उड़ाते थे, नहीं तो बैठे-बैठाए इस मायाजाल में फँसे। अब बतलाइए, है कहीं नौकरी-चाकरी का सहारा?

रमेश ने ताक पर से मुहरे और बिसात उतारते हुए कहा-आओ एक बाजी हो जाए, फिर इस मामले को सोचें, इसे जितना आसान समझ रहे हो, उतना आसान नहीं है। अच्छे-अच्छे धक्के खा रहे हैं।

रमानाथ–मेरा तो इस वक्त खेलने को जी नहीं चाहता। जब तक यह प्रश्न हल न हो जाए, मेरे होश ठिकाने नहीं होंगे।

रमेश बाबू ने शतरंज के मुहरे बिछाते हुए कहा—आओ बैठो। एक बार तो खेल लो, फिर सोचें, क्या हो सकता है।