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तो अब हो ही क्या सकता है? इनकी शहादत तो हो ही गई। सहसा एक बात किसी भारी कील की तरह उसके हृदय में चुभ गई।

क्यों न यह अपना बयान बदल दें। उन्हें मालूम हो जाए कि म्युनिसिपैलिटी उनका कुछ नहीं कर सकती, तो शायद वह खुद ही अपना बयान बदल दें। यह बात उन्हें कैसे बताई जाए? किसी तरह संभव है। वह अधीर होकर नीचे उतर आई और देवीदीन को इशारे से बुलाकर बोली—क्यों दादा, उनके पास कोई खत भी नहीं पहुँच सकता? पहरे वालों को दस-पाँच रुपए देने से तो शायद खत पहुँच जाए।

देवीदीन ने गरदन हिलाकर कहा-मुसकिल है। पहरे पर बड़े अँचे हुए आदमी रखे गए हैं। मैं दो बार गया था। सबों ने फाटक के सामने खड़ा भी न होने दिया।

'उस बँगले के आस-पास क्या है?'

'एक ओर तो दूसरा बँगला है। एक ओर एक कलमी आम का बाग है और सामने सड़क है।'

'हाँ, शाम को घूमने-घामने तो निकलते ही होंगे?'

'हाँ, बाहर कुरसी डालकर बैठते हैं। पुलिस के दो-एक अफसर भी साथ रहते हैं।'

'अगर कोई उस बाग में छिपकर बैठे, तो कैसा हो! जब उन्हें अकेले देखे, खत फेंक दे। वह जरूर उठा लेंगे।'

देवीदीन ने चकित होकर कहा-हाँ, हो तो सकता है, लेकिन अकेले मिलें, तब तो!

जरा और अँधेरा हुआ, तो जालपा ने देवीदीन को साथ लिया और रमानाथ का बंगला देखने चली। एक पत्र लिखकर जेब में रख लिया था। बार-बार देवीदीन से पूछती—अब कितनी दूर है? अच्छा! अभी इतनी ही दूर और! वहाँ हाते में रोशनी तो होगी ही।

उसके दिल में लहरें-सी उठने लगीं। रमा अकेले टहलते हुए मिल जाएँ, तो क्या पूछना। रूमाल में बाँधकर खत को उनके सामने फेंक दूं। उनकी सूरत बदल गई होगी। सहसा उसे शंका हो गई, कहीं वह पत्र पढ़कर भी अपना बयान न बदलें, तब क्या होगा? कौन जाने अब मेरी याद भी उन्हें है या नहीं। कहीं मुझे देखकर वह मुँह फेर लें तो इस शंका से वह सहम उठी। देवीदीन से बोली-क्यों दादा, वह कभी घर की चर्चा करते थे?

देवीदीन ने सिर हिलाकर कहा—कभी नहीं। मुझसे तो कभी नहीं की। उदास बहुत रहते थे।

इन शब्दों ने जालपा की शंका को और भी सजीव कर दिया। शहर की घनी बस्ती से ये लोग दूर निकल आए थे। चारों ओर सन्नाटा था। दिन भर वेग से चलने के बाद इस समय पवन भी विश्राम कर रहा था। सड़क के किनारे के वृक्ष और मैदान चंद्रमा के मंद प्रकाश में हतोत्साह, निर्जीव से मालूम होते थे। जालपा को ऐसा आभास होने लगा कि उसके प्रयास का कोई फल नहीं है, उसकी यात्रा का कोई लक्ष्य नहीं है, इस अनंत मार्ग में उसकी दशा उस अनाथ की सी है, जो मुट्ठीभर अन्न के लिए द्वार-द्वार फिरता हो। वह जानता है, अगले द्वार पर उसे अन्न न मिलेगा, गालियाँ ही मिलेंगी, फिर भी वह हाथ फैलाता है, बढ़ती मनाता है। उसे आशा का अवलंब नहीं, निराशा ही का अवलंब है।

एकाएक सड़क के दाहिनी तरफ बिजली का प्रकाश दिखाई दिया। देवीदीन ने एक बँगले की ओर उँगली उठाकर