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पुलिस स्टेशन के दफ्तर में इस समय बड़ी मेज के सामने चार आदमी बैठे हुए थे। एक दारोगा थे, गोरे सेशौकीन, जिनकी बड़ी-बड़ी आँखों में कोमलता की झलक थी। उनकी बगल में नायब दारोगा थे। यह सिख थे, बहुत हँसमुख, सजीवता के पुतले, गेहुआँ रंग, सुडौल, सुगठित शरीर। सिर पर केश था, हाथों में कड़े, पर सिगार से परहेज न करते थे। मेज की दूसरी तरफ इंस्पेक्टर और डिप्टी सुपरिंटेंडेंट बैठे हुए थे। इंस्पेक्टर अधेड, साँवला, लंबा आदमी था, कौड़ी की सी आँखें, फुले हुए गाल और ठिगना कद। डिप्टी सुपरिटेंडेंट लंबा छरहरा जवान था, बहुत ही विचारशील और अल्पभाषी, इसकी लंबी नाक और ऊँचा मस्तक उसकी कुलीनता के साक्षी थे।

डिप्टी ने सिगार का एक कश लेकर कहा–बाहरी गवाहों से काम नहीं चल सकेगा। इनमें से किसी को एप्रूवर बनना होगा और कोई अल्टरनेटिव नहीं है।

इंस्पेक्टर ने दारोगा की ओर देखकर कहा-हम लोगों ने कोई बात उठा तो नहीं रखी, हलफ से कहता हूँ। सभी तरह के लालच देकर हार गए। सबों ने ऐसा गुट कर रखी है कि कोई टूटता ही नहीं। हमने बाहर के गवाहों को भी आजमाया, पर सब कानों पर हाथ रखते हैं।

डिप्टी उस मारवाड़ी को फिर आजमाना होगा। उसके बाप को बुलाकर खूब धमकाइए। शायद इसका कुछ दबाव पड़े।

इंस्पेक्टर–हलफ से कहता हूँ, आज सुबह से हम लोग यही कर रहे हैं। बेचारा बाप लड़के के पैरों पर गिरा, पर लड़का किसी तरह राजी नहीं होता।

कुछ देर तक चारों आदमी विचारों में मगन बैठे रहे। अंत में डिप्टी ने निराशा के भाव से कहा—मुकदमा नहीं चल सकता। मुफ्त का बदनामी हुआ।

इंस्पेक्टर-एक हफ्ते की मुहलत और लीजिए, शायद कोई टूट जाए।

यह निश्चय करके दोनों आदमी यहाँ से रवाना हुए। छोटे दारोगा भी उसके साथ ही चले गए। दारोगाजी ने हुक्का मँगवाया कि सहसा एक मुसलमान सिपाही ने आकर कहा–दारोगाजी, लाइए कुछ इनाम दिलवाइए। एक मुलजिम को शुबहे पर गिरफ्तार किया है। इलाहाबाद का रहने वाला है, नाम है रमानाथ, पहले नाम और सकूनत दोनों गलत बतलाई थीं। देवीदीन खटीक, जो नुक्कड़ पर रहता है, उसी के घर ठहरा हुआ है। जरा डाँट बताइएगा तो सबकुछ उगल देगा।

दारोगा-वही है न जिसके दोनों लड़के...

सिपाही—जी हाँ, वही है।

इतने में रमानाथ भी दारोगा के सामने हाजिर किया गया। दारोगा ने उसे सिर से पाँव तक देखा, मानो मन में उसका हुलिया मिला रहे हों। तब कठोर दृष्टि से देखकर बोले-अच्छा, यह इलाहाबाद का रमानाथ है। खूब मिले भाई। छह महीने से परेशान कर रहे हो, कैसा साफ हुलिया है कि अंधा भी पहचान ले। यहाँ कब से आए हो?