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जब से रमा चला गया था, रतन को जालपा के विषय में बड़ी चिंता हो गई थी। वह किसी बहाने से उसकी मदद करते रहना चाहती थी। इसके साथ ही यह भी चाहती थी कि जालपा किसी तरह ताड़ने न पाए। अगर कुछ रुपया खर्च करके भी रमा का पता चल सकता, तो वह सहर्ष खर्च कर देती। जालपा की वह रोती हुई आँख देखकर उसका हृदय मसोस उठता था। वह उसे प्रसन्न मुख देखना चाहती थी। अपने अँधेरे, रोने घर से ऊबकर वह जालपा के घर चली जाया करती थी। वहाँ घड़ी भर हँस-बोल लेने से उसका चित्त प्रसन्न हो जाता था। अब वहाँ भी वही नहूसत छा गई। यहाँ आकर उसे अनुभव होता था कि मैं भी संसार में हूँ, उस संसार में जहाँ जीवन है, लालसा है, प्रेम है, विनोद है। उसका अपना जीवन तो व्रत की वेदी पर अर्पित हो गया था। वह तन-मन से उस व्रत का पालन करती थी, पर शिवलिंग के ऊपर रखे हुए घट में क्या वह प्रवाह है, तरंग है, नाद है, जो सरिता में है? वह शिव के मस्तक को शीतल करता रहे, यही उसका काम है, लेकिन क्या उसमें सरिता के प्रवाह और तरंग और नाद का लोप नहीं हो गया है?

इसमें संदेह नहीं कि नगर के प्रतिष्ठित और संपन्न घरों से रतन का परिचय था, लेकिन जहाँ प्रतिष्ठा थी, वहाँ तकल्लुफ था, दिखावा था, ईर्ष्या थी, निंदा थी। क्लब के संसर्ग से भी उसे अरुचि हो गई थी। वहाँ विनोद अवश्य था, क्रीड़ा अवश्य थी, किंतु पुरुषों के आतुर नेत्र भी थे, विकल हृदय भी, उन्मत्त शब्द भी। जालपा के घर अगर वह शान न थी, वह दौलत न थी, तो वह दिखावा भी न था, वह ईर्ष्या भी न थी। रमा जवान था, रूपवान था, चाहे रसिक भी हो, पर रतन को अभी तक उसके विषय में संदेह करने का कोई अवसर न मिला था और जालपा जैसी सुंदरी के रहते हुए उसकी संभावना भी न थी। जीवन के बाजार में और सभी दुकानदारों की कुटिलता और जटूपन से तंग आकर उसने इस छोटी सी दुकान का आश्रय लिया था, किंतु यह दुकान भी टूट गई। अब वह जीवन की सामग्रियाँ कहाँ बेसाहेगी, सच्चा माल कहाँ पावेगी?

एक दिन वह ग्रामोफोन लाई और शाम तक बजाती रही। दूसरे दिन ताजे मेवों की एक कटोरी लाकर रख गईं। जब आती तो कोई सौगात लिए आती। अब तक वह रामेश्वरी से बहुत कम मिलती थी, पर अब बहुधा उसके पास आ बैठती और इधर-उधर की बातें करती। कभी-कभी उसके सिर में तेल डालती और बाल गूंथती। गोपी और विश्वंभर से भी अब उसे स्नेह हो गया। कभी-कभी दोनों को मोटर पर घुमाने ले जाती। स्कूल से आते ही दोनों उसके बँगले पर पहुँच जाते और कई लड़कों के साथ वहाँ खेलते। उनके रोने-चिल्लाने और झगड़ने में रतन को हार्दिक आनंद प्राप्त होता था। वकील साहब को भी अब रमा के घरवालों से कुछ आत्मीयता हो गई थी। बार-बार पूछते रहते थे—रमा बाबू का कोई खत आया, कुछ पता लगा? उन लोगों को कोई तकलीफ तो नहीं है?

एक दिन रतन आई, तो चेहरा उतरा हुआ था। आँखें भारी हो रही थीं। जालपा ने पूछा-आज जी अच्छा नहीं है क्या?

रतन ने कुंठित स्वर में कहा—जी तो अच्छा है, पर रात भर जागना पड़ा।

रात से उन्हें बड़ा कष्ट है। जाड़ों में उनको दमे का दौरा हो जाता है। बेचारे जाड़ों भर एमलशन और सनाटोजन और न जाने कौन-कौन से रस खाते रहते हैं, पर यह रोग गला नहीं छोड़ता। कलकत्ता में एक नामी वैद्य हैं। अबकी