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जग्गो ने दो पैसे और थोड़े से आलू देकर उसे विदा किया और दुकान सजाने लगी। सहसा उसे हिसाब की याद आ गई। रमा से बोली-भैया, जरा आज का खरचा तो टाँक दो। बाजार में जैसे आग लग गई है। बुढिया छबड़ियों में चीजें लगा-लगाकर रखती जाती थी और हिसाब भी लिखाती जाती थी। आलू, टमाटर, कद्, केले, पालक, सेम, संतरे, गोभी, सब चीजों का तौल और दर उसे याद था। रमा से दोबारा पढ़वाकर उसने सुना, तब उसे संतोष हुआ। इन सब कामों से छुट्टी पाकर उसने अपनी चिलम भरी और मोढ़े पर बैठकर पीने लगी, लेकिन उसके अंदाज से मालूम होता था कि वह तंबाकू का रस लेने के लिए नहीं, दिल को जलाने के लिए पी रही है। एक क्षण के बाद बोली–दूसरी औरत होती तो घड़ी भर इसके साथ निबाह न होता, घडी भर। पहर रात से चक्की में जुत जाती हूँ और दस बजे रात तक दुकान पर बैठी सती होती रहती हूँ। खाते-पीते बारह बजते हैं, तब जाकर चार पैसे दिखाई देते हैं और जो कुछ कमाती हूँ, यह नसे में बरबाद कर देता है। सात कोठरी में छिपा के रख, पर इसकी निगाह पहुँच जाती है। निकाल लेता है। कभी एकाध चीज-बस्त बनवा लेती हूँ तो वह आँखों में गड़ने लगती है। तानों से छेदने लगता है। भाग में लड़कों का सुख भोगना नहीं बदा था, तो क्या करूँ! छाती फाड़ के मर जाऊँ? माँगे से मौत भी तो नहीं मिलती। सुख भोगना लिखा होता तो जवान बेटे चल देते और इस पियक्कड़ के हाथों मेरी यह साँसत होती! इसी ने सुदेसी के झगड़े में पड़कर मेरे लालों की जान ली। आओ, इस कोठरी में भैया, तुम्हें मुगदर की जोड़ी दिखाऊँ। दोनों इस जोड़ी से पाँच-पाँच सौ हाथ फेरते थे।

अँधेरी कोठरी में जाकर रमा ने मुगदर की जोड़ी देखी। उस पर वार्निश थी, साफ-सुथरी मानो अभी किसी ने फेर कर रख दिया हो। बुढिया ने सगर्व नजरों से देखकर कहा—लोग कहते थे कि यह जोड़ी महा ब्राह्मण को दे दे, तुझे देख-देख कलक होगा। मैंने कहा, यह जोड़ी मेरे लालों की जुगल जोड़ी है। यही मेरे दोनों लाल हैं। बुढिया के प्रति आज रमा के हृदय में असीम श्रद्धा जाग्रत् हुई। कितना पावन धैर्य है, कितनी विशाल वत्सलता, जिसने लकड़ी के इन दो टुकड़ों को जीवन प्रदान कर दिया है। रमा ने जग्गो को माया और लोभ में डूबी हुई, पैसे पर जान देने वाली, कोमल भावों से सर्वथा विहीन समझ रखा था। आज उसे विदित हुआ कि उसका हृदय कितना स्नेहमय, कितना कोमल, कितना मनस्वी है। बुढिया ने उसके मुँह की ओर देखा, तो न जाने क्यों उसका मातृ! हृदय उसे गले लगाने के लिए अधीर हो उठा। दोनों के हृदय प्रेम के सूत्र में बंध गए। एक ओर पुत्र-स्नेह था, दूसरी ओर मातृभक्ति। वह मालिन्य, जो अब तक गुप्त भाव से दोनों को पृथक् किए हुए था, आज एकाएक दूर हो गया। बुढिया ने कहामुँह-हाथ धो लिया है न बेटा, बड़े मीठे संतरे लाई हूँ, एक लेकर चखो तो।

रमा ने संतरा खाते हुए कहा-आज से मैं तुम्हें अम्माँ कहा करूँगा।

बुढिया के शुष्क, ज्योतिहीन, ठंडे, कृपण नजरों से मोती के से दो बिंदु निकल पड़े।

इतने में देवीदीन दबे पाँव आकर खड़ा हो गया। बुढिया ने तड़पकर पूछा यह इतने सबेरे किधर सवारी गई थी सरकार की?

देवीदीन ने सरलता से मुसकराकर कहा-कहीं नहीं, जरा एक काम से चला गया था।

'क्या काम था, जरा मैं भी तो सुनें, या मेरे सुनने लायक नहीं है?'

'पेट में दर्द था, जरा वैदजी के पास चूरन लेने गया था।'

'झूठे हो तुम, उड़ो उससे, जो तुम्हें जानता न हो। चरस की टोह में गए थे तुम।'