यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

रमा ने लज्जित होकर कहा कुछ ऐसी बात थी, दादा! वह तो गहनों की बहुत इच्छुक न थी, लेकिन पा जाती थी तो प्रसन्न हो जाती थी और मैं प्रेम की तरंग में आगा-पीछा कुछ न सोचता था।

देवीदीन के मुँह से मानो आप-ही-आप निकल आया सरकारी रकम तो नहीं उड़ा दी?

रमा को रोमांच हो आया। छाती धक् से हो गई। वह सरकारी रकम की बात उससे छिपाना चाहता था। देवीदीन के इस प्रश्न ने मानो उस पर छापा मार दिया। वह कुशल सैनिक की भाँति अपनी सेना को घाटियों से, जासूसों की आँख बचाकर, निकाल ले जाना चाहता था, पर इस छापे ने उसकी सेना को अस्त-व्यस्त कर दिया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया। वह एकाएक कुछ निश्चय न कर सका कि इसका क्या जवाब दूँ?

देवीदीन ने उसके मन का भाव भाँपकर कहा-प्रेम बड़ा बेढब होता है, भैया! बड़े-बड़े चूक जाते हैं, तुम तो अभी लड़के हो। गबन के हजारों मुकदमे हर साल होते हैं। तहकीकात की जाए, तो सबका कारण एक ही होगा, गहना। दस-बीस वारदात तो मैं आँखों देख चुका हूँ। यह रोग ही ऐसा है। औरत मुँह से तो यही कहे जाती है कि यह क्यों लाए, वह क्यों लाए, रुपए कहाँ से आवेंगे, लेकिन उसका मन आनंद से नाचने लगता है। यहीं एक डाकबाबू रहते थे। बेचारे ने छुरी से गला काट लिया। एक-दूसरे मियाँ साहब को मैं जानता हूँ, जिनको पाँच साल की सजा हो गई, जेहल में मर गए। एक तीसरे पंडितजी को जानता हूँ, जिन्होंने अफीम खाकर जान दे दी। बुरा रोग है। दूसरों को क्या कहूँ, मैं ही तीन साल की सजा काट चुका हूँ। जवानी की बात है, जब इस बुढिया पर जोबन था, ताकती थी तो मानो कलेजे पर तीर चला देती थी। मैं डाकिया था। मनीआर्डर तकसीम किया करता था। यह कानों के झुमकों के लिए जान खा रही थी। कहती थी, सोने ही के लूँगी। इसका बाप चौधरी था। मेवे की दुकान थी। मिजाज बढ़ा हुआ था। मुझ पर प्रेम का नसा छाया हुआ था। अपनी आमदनी की डींगें मारता रहता था। कभी फूल के हार लाता, कभी मिठाई, कभी अतर-फुलेल, शहर का हलका था। जमाना अच्छा था। दुकानदारों से जो चीज माँग लेता, मिल जाती थी। आखिर मैंने एक मनीआर्डर पर झूठे दस्तखत बनाकर रुपए उड़ा लिए। कुल तीस रुपए थे। झुमके लाकर इसे दिए। इतनी खुश हुई, इतनी खुश हुई कि कुछ न पूछो, लेकिन एक ही महीने में चोरी पकड़ ली गई। तीन साल की सजा हो गई। सजा काटकर निकला तो यहाँ भाग आया। फिर कभी घर नहीं गया। यह मुँह कैसे दिखाता? हाँ, घर पत्र भेज दिया। बुढिया खबर पाते ही चली आई। यह सबकुछ हुआ, मगर गहनों से उसका पेट नहीं भरा। जब देखो, कुछ-न-कुछ बनता ही रहता है। एक चीज आज बनवाई, कल उसी को तुड़वाकर कोई दूसरी चीज बनवाई, यही तार चला जाता है। एक सोनार मिल गया है, मजूरी में साग-भाजी ले जाता है। मेरी तो सलाह है, घर पर एक खत लिख दो, लेकिन पुलिस तो तुम्हारी टोह में होगी। कहीं पता मिल गया तो काम बिगड़ जाएगा। मैं न किसी से एक खत लिखाकर भेज दूं?

रमा ने आग्रहपूर्वक कहा- नहीं, दादा! दया करो। अनर्थ हो जाएगा। पुलिस से ज्यादा तो मुझे घरवालों का भय

देवीदीन–घरवाले खबर पाते ही आ जाएँगे। यह चर्चा ही न उठेगी। उनकी कोई चिंता नहीं। डर पुलिस ही का है।

रमानाथ-मैं सजा से बिल्कुल नहीं डरता। तुमसे कहा नहीं, एक दिन मुझे वाचनालय में जान-पहचान की एक स्त्री दिखाई दी। हमारे घर बहुत आती-जाती थी। मेरी स्त्री से बड़ी मित्रता थी। एक बड़े वकील की पत्नी है। उसे देखते ही मेरी नानी मर गई। ऐसा सिटपिटा गया कि उसकी ओर ताकने की हिम्मत न पडी। चुपके से उठकर पीछे के बरामदे में जा छिपा। अगर उस वक्त उससे दो-चार बातें कर लेता, तो घर का सारा समाचार मालूम हो जाता