यह सुनकर उन्होंने कहा,--"अच्छी बात है; तुम्हारे जो जो में आवे, सो करना, पर इस समय तो तुम थोड़ा सा दूध पी लो।
मैं बोली,--"तुम अपने अफसर से पूछ कर रहे हो?
वे बोले,--"अरे राम, राम! भला ऐसा भी कमी होसकता है ? मैं तुम्हें चोरी से दुध ला दूंगा, उसे तुम चुपचाप पी जाना और उसकी बात सिवाय शिवरामतिधारा के, और किसी तीसरे शख्स के आगे जाहिर मत करना ।"
मैं बोली,--"तो बस, भाई! अब तुम दया करके ऐसी बातों को बन्द करो, क्योंकि मैं चोरी का काम करके अपने ईमान में बट्टा नहीं लगाना चाहती।"
मेरी ऐसी बात सुनकर बेबारे रघुनाथसिंह बहुल दो पछताने और हर तरह से मुझे समझाने लगे; पर जब मैं किसी तरह भी न मानी,तब उन्होंने यों कहा,-"अच्छा,पर थोड़ा सा पानी तो पी लो।"
यह सुनकर मैने कहा,--"हां, पानी पीने में कोई हर्ज नहीं है, पर उसे मैं पी क्यो कर सकूंगी ?"
उन्होंने कहा,--मैं एक केले के पत्ते में धार बांधकर बाहर से पानी दूंगा, तुम अंजुली लगाकर पी लेना ।
यो कह कर वे एक लोटा जल ले गए। बाद इसके, उन्होंने केले के पत्ते में धार बांधी और मैं अंजुली लगाकर पवित्र गङ्गाजल पीने लगी । जय सारा लोटा, जिसमें डेढ़ सेर से कम जल न होगा, खाली होगया, तब रघुनाथसिंह ने यों कहा,-"क्यों,प्यास मिटी, या और लाऊं?"
मैं बोली,--"नहीं, अब बस करो भाई ! इस जलदान के पल्टे में भगवान तुम्हारा भला करेगा, यही मेरी असीस है। "
"तुम्हारी असीस मैं सिर-माथे चढ़ाता है।" यों कहकर वे जाकर लोटा रस आए और बान्धे पर बन्दूक घरे घूम-घूम कर मेरी कोठरी फा पहरा देने लगे।