लाज रक्खी ! शाह, मैं भी कुलीन ब्राह्मण हूं, पर इस पेट चण्डाल के मारे मेरा सारा ब्राह्मणाने का आचार-विचार जाता रहा, पर तुम धन्य हो कि इस आफत में फंसकर भी अपनी कुल-मर्यादा की टेक निबाहने के लिये दृढ़ता से तैयार हो! धन्य हो, तुम धन्य हो और तुम्हारा साहस भी धन्य है !"
बड़े नेक कांस्टेबिल शिवराम तिवारी की ऐसी बातें सुनकर मेरा रोम-रोम प्रसन्न होगया और मैंने उनसे कहा,-"भाई साहब, विपत्ति में धीरज धरना ही तो उस (बिपत्ति) से बाजी जीतना है इसलिये मैं बड़े धैर्य के साथ इस विपत्ति का सामना करने के लिये तैयार हूं।"
वे कहने लगे,--"तुम्हें ऐसाही करना चाहिए । अस्तु, सुनो,-. मैं समझता हूँ कि तुम्हें दूध-ऊध कोई भी न देगा, इसलिये यदि तुम कहो तो मैं तुम्हें चुपचाप दुध लादूं ।”
मैं बोली,--"नहीं, भाई ! मैं ऐसी चोरी का दान नहीं लिया चाहती । यदि मेरे पास पैसे होते तो मैं उन्हें देकर तुमसे जरूर चुपचाप दूध मंगवा लेती; पर मेरे पास तो इस समय एक फूटी कौड़ी भी नहीं है, इसलिये तुम्हारा यह गुप्तदान मैं किसी तरह भी नहीं लिया चाहती।"
यह सुनकर शिवरामतियारी चुप होगए और मैं उसी सांसतघर मैं बैठी बैठी अपने दुर्भाग्य को कोसने लगी । उस समय तरह तरह के खयाल मेरे मन में उठते गौर धोरे धीरे पिलाते जाते थे।
मै सोची कि मेरा एक दिन तो वह था, जब मेरे माता- पिता जीते थे और एक दिन यह है कि सात-सात खून के अपराध में पकड़ी जाकर मैं इस कालकोठरी में बन्द की गई हूं ! बस, देर तक मैं इसी बात पर रोती कलपती रही, इसके बाद जब पिता-माता के लाड़-प्यार का ध्यान मुझे हो गया, तब तो मेरा हिया