यह सुनकर रघुनाथसिंह तो चले गए और शिवराम तिवारी ने मुझले कहा,--"दुलारी, मैं तुम्हारी इस कोठरी की , बगलवाली कोठरी का दरवाजा खोल देता हूं, उसमें जाकर तुम झतपट अपने जरूरी कामों से निपट आओ। उस कोठरी में दो औरतें मौजूद हैं, उनसे तुम्हें जरूरत की सब चीजें मिल जायंगी।"
यो कहकर शिवराम तिवारी ने मेरी कोठरी की बगलवाली एक कोठरी का दरवाजा खोल दिया । तब मैं उस ( दूसरी) कोठरी में गई और उन औरतों की मदद से आध घण्टे में सब बातों से निश्चिन्त होकर अपनी कोठरी में लौट आई। मेरे आते ही उस ( दूसरे ) दरवाजे को शिवरामतिवारी ने बन्द कर दिया।
बस, इतने ही में दल का घण्टा बजा और शिवराम तिवारी में मुझसे यों कहा,--" अब दरोगाजी आवेंगे और तुमको इस कोठरी से निकाल कर उस जगह ले जायंगे, जहां पर तुम रसोई खामोगी।"
मैं उस कांस्टेबिल अर्थात् शिवराम तिवारी की इस बात का आवाज दिया ही चाहती थी कि एक खूब लम्बे-चौड़े जवान मेरी कोठरी के आगे भी और ताले में ताली डाल कर उसे घुमाते हुए यों बोले,--"दुलारी, रसोई खाने चलो।"
यह सुन कर मैने कहा,--"नहीं, साहब ! मैं ब्राह्मण को लड़की हूं, इसलिये रसोई असोई मैं किसी के हाथ की नहीं खा सकती।"
वे बोले--"अरे, सुनो! यहां भी कनौजिया ब्राह्मण ही रसोई बनाता है। इसलिये अब जल्दी करो और चल कर झटपट रसोई खा आओ । आज शुक्रवार है और कल आखिरी सनीचर है। फिर परसों ऐंतवार छुट्टी का दिन है। इसलिये तुम सोमवार के दिन मजिस्टर साहब के रूबरू पेश की जाओगी।"
यह सुन कर मैंने कहा,--" यह तो आपलोगों को अधिकार