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खूनी औरत का


सत्रहवां परिच्छेद।

हाजत में।

"हरिणागि हरेणापि ब्रह्मणा त्रिदशैरपि।
ललाटलिखिता रेखा न शंश्या परिमार्जितुम् ॥"

(व्यासः)
 

योंही सारी रात बीती और सबेरे जब मुझे एक कांस्टेबिल में खूब चिल्ला चिल्ला कर जगाया, तब मेरी नींद खुली।

मैं आखें मल और भगवान् का नाम लेकर उठ बैठी और - बाहर खड़े हुए कांस्टेबिल से मैंने पूछा,-" क्यों भाई, के बजा होगा ?"

वह विचारा बड़ा भला आदमी था । सो, उसने मेरी ओर करुणा-भरी दृष्टि से देखकर यों कहा,-"अब नौ बजने वाले हैं।" यह सुनकर मैं बहुत ही चकित हुई और बोली कि, "ओह ! इतनी देर तक मैं सोती रही!!!"

इसपर उस कांस्टेबिल ने कहा,-"नहीं, दुलारी! तुम रात को शायद सुख से न सोई होगी, क्योंकि मैं तीन बजे से तुम्हारे पहरे पर हूँ। इतनी देर में मैंने क्या देखा कि, 'तुम बड़ी बेचैनी के के साथ बार बार करवटें बदलती ओर बराबर वर्गती रहीं !' हाय, तुम बड़ी भारी मुसीबत में आ फंसी हो! अब जो भगवान हो तुम्हें बचावें, तभी तुम इस बला से बच सकती हो।"

बस भले कांस्टेबिल को ऐसी हमदर्दी से भरी हुई बातें सुनकर मैने कहा,--"अच्छा, भाई ! अब तो मैं आ ही फंसी हूं, इसलिये मुझे बड़े सम्र के साथ इस आपदा का सामना करना चाहिए, और इसके साथ ही यह भी देखना चाहिए कि धर्म, सत्य और परमेश्वर भी कोई चीज हैं, या नहीं।"

मेरी ऐसी पाप्त सुनकर उस कांस्टेबिल मे कहा,-" दुलारी,