सुनने से यह बात साफ तौर से मालूम होती है कि तुम पड़ी जर्रार औरत हो और मौका पाकर और अपनी गाय का खयाल करके तुमने ये सात सात खून खुद कर डाके हैं ! कर तो डाले हैं, तुमने सात खून पर अब चलाकी की करके छः खूनों के बारे में तो तुम दूसरे ढंग की बातें कहती हो और सिर्फ हिरवा के खून की बात कबूल करती हो । सो भी इस ढंग से, कि जिसमें उस खून का भी जुर्म तुम पर न लग सके । बाकई, तुम एक निहायत जबरदस्त और होशियार औरत हो,तभी तो बड़ी दिलेरी का काम कर गुजरी हो ! इसलिये अग तुम कानपुर के मजिष्ट के भागै पेश की जाओगी और वहां से जो कुछ होना होगा, सो होता रहेगा।
अरे, कोतवाल साहब की इस अनोखी बात को सुन कर मैं तो दंग रह गई ! हाय, मेरा बयान कुछ नहीं, और उनका "तर्क" लय कुछ ! सच है, जिसके हाथ में "दण्ड” देने की शक्ति है, यह सच कुछ कर सकता है ! निदान, मैले कोतवाल साहब के साथ बहुत कुछ तर्क-वितर्फ किया,-उन अंगरेज अफसर से भी बहुत कुछ कहा-सुना, पर मेरी बातों पर किसीने कान ही न दिया ! तब मैने झंझला कर उन साहब बहादुर से यों कहा,-"साहब, आप मेरे कहने पर क्यों नहीं ध्यान देते ? यदि भाप मेरे बयान पर खूब अच्छी तर गौर करेंगे,तो यह बात आपको भलीभांति मालूम होजायगी कि, मैने जो कुछ कहा है, उसमें झूर का लपलेश भी नहीं है।' देखिए, सुनिए और सोनिए कि यदि मैं हिरवा के गला घोंटगे की बात स्वयं न कहती तो आप क्या करते ? मैने तो उस समय क्रोध के भावेश में पहचाल होकर उसका गला दबाया था, कुछ उसके खुन करने को मेरा इच्छा थोड़े ही थी । परन्तु यदि वह मर ही गया, तो उस खून के करने का अपराध मुझे कैसे लगाया जाता है या उस समय मैं अपने आप में शी, जो मुझे दोषी ठहराया जाता है ? फिर अपनी इजत-आबरू के पचाने की गरज से यदि