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खूनी औरत का


जल के इस कोठरी में मर ही क्यों न जाऊं,पर बिना किसी अंगरेज अफसर के आए, अब मैं इस कोठरी का किवाड़ कभी भी न खोलूंगी। आप कानपुर जाते हैं, तो जाइए, पर अपने जोडीदारों से यह बात अच्छी तरह समझाने जाइए कि, 'इस कोठरी के द्वार । खुलवाने के लिये कोई हठ न करे ।' यदि आपके पीछे मुझे किसी ने छेड़ा, तो आप निश्चय जानिए कि या तो मै सपने छेड़नेवाले पर बन्दुक चलाऊंगी, या मागही अपने कलेजे में गोली मारलूंगी।"

मैने ये बातें इतनी जोर से कही थीं कि उन्हें वहां पर के सभी चौकीदारों ने सुना था, पर मेरी बातों का किसीने कोई जवाब नहीं दिया था। हां, रामदयाल ने उन सब चौकीदारों की ओर देख कर यह जरूर कहा था कि,--"देखना भाइयों, इस 'वीरनारी' को तुमलोग जरा न छेड़ना ।"

जब इस बात को उन सभी ने मान लिया, तब रामदयाल मे मियां दियानत हुसेन से यों कहा,-"दियानतहुसेन ! तुम इस कैदी औरत की खूब चौकसी करना । मैं अब कादिर बख्श चौकीदार के साथ कानपुर जाता हूं। यदि हो सका तो कल किसी अंगरेज अफसर को भी जरूर साथ लेता आऊंगा।

यह सुनकर दियानत हुसेन ने कहा,--" तुम वहाँ जाओ और - यहांकी फिक्र जरा भी न करो।

बस, फिर बाहर सन्नाटा छा गया और दो चौकीदार कंधे पर गड़ांसा रखकर मेरी कोठरी के आगे टहलने लगे। उन दोनों में दियानतहुसेन भी थे।

बस, फिर तो मैं उसी खिड़की के आगे बैठी रही और पगली की तरह रह रह कर बाहर की तरफ़ झांकने लगी। उस समय सचमुच मैं अपने आप में न थी और यह नहीं जानती थी कि मैं क्या कर रही हूँ ! बस, केवल यही धुन मेरे सिर पर सवार थी कि, 'अपना प्राण देकर भी अपने अमूल्य सतीत्व धर्म की रक्षा