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खूनी औरत का


अपनी कोठरी में जंगले के पास खड़ी रही।

मेरे साथ उन दोनों आदमियों की क्या क्या बातें हुई, उनके लिखने के पहिले मैं उन दोनों साहबों की सूरत शकल का कुछ थोड़ा सा बयान यहां पर किये देती हूं।

काले रंग का चोगा पहिरे और अङ्गरेजी टोप लगाए हुए जो बारिस्टर साहब थे, वे मेरे अन्दाज से चौबीस-पच्चीस बरस से जादे उम्र के कभी न होंगे। वे दुबले-पतले, खूब गोरे और लम्बे कद के बड़े सुन्दर जवान थे और अभी तक उन्हें अच्छी तरह मूंछे नहीं आई थीं। और वे जो दूसरे जासूस साहब थे, वे खूब मोटे, कुछ नाटे कद के, सांवले रंग के और साठ बरस के बूढ़े पञ्जाबी मालूम होते थे। उनकी कानों पर खिंची हुई डाढ़ी और मंछों के बाल बिल्कुल सफ़ेद होगए थे और उनके मुखड़े के देखने से मन में उनके ऊपर बड़ी श्रद्धा होने लगती थी।

जब कहने ही बैठी हूं, तब कोई भी बात मैं न छिपाऊंगी और अपनी जीवनी की सारी बातें खोलकर लिख डालूंगी; इससे इसके पढ़नेवाले चाहे मुझे किसी दृष्टि से देखें, पर मैं अपनी जीवनी की किसी बात को भी नहीं छिपाऊंगी। तो मेरे इस कहने का क्या अभिप्राय है? यही कि भाई दयालसिंहजी को देखकर मेरे मन में उनपर जैसी श्रद्धा हुई थी, वैसी ही बारिष्टर साहब को देखकर उनपर भक्ति भी हुई थी। वह भक्ति बड़ी पवित्र, बड़ी पक्की और बड़ी ही हृदयग्राहिणी थी। पर मुझे देख कर उनके मन में कैसे भाव का उदय हुआ था, इसे तो उस समय वे ही जान सकते थे। वे रह रह कर मुझे सिर से पैर तक निरखते, भरपूर नजर गड़ाकर मेरी ओर देखते और मुहं फेर फेर कर इस तरह ठंढी ठंढी सांसे भरने लगते थे कि उसे मैं भली भांति समझ सकती थी। अस्तु, अब उन बातों को अभी रहने देती हूं।