दूसरा परिच्छेद।
आशा का अङ्कर।
"अनुकूले सति धातरि,
भवत्यनिष्टादपीष्टमविलम्सम्॥
पीत्वा विषमपि शम्भु—
र्मत्युञ्जयतामवाप तत्कालम्॥"
(नीतिरत्नोबली)
अस्तु,जब मैं दूध पी चुकी,तो मैंने क्या देखा कि जेलर साहब दो भले आदमियों के साथ मेरी कोठरी की ओर आ रहे हैं और उनके पीछे पीछे एक आदमी दो कुर्सियां लिए हुए चला आ रहा है। मेरी कोठरी के आगे दालान में वे दोनों कुर्सियां डाल दी गई और जेलर साहब ने मेरी ओर देख कर यों कहा,—"दुलारी, इन दोनों भले आदमियों में से जो काला चोगा पहिरे और बड़ा सा टोप लगाए हुए हैं, ये ही तुम्हारे बारिस्टर हैं और जो सादी पोशाक पहिरे और मुरेठा बांधे हुए हैं, ये सरकारी जासूस हैं। ये लोग जो कुछ तुमसे पूछे, उसका तुम मुनासिब जवाब देना। अभी बारह बजे हैं, और ये दोनों साहब पांच बजे तक, अर्थात्पां च घंटे तक यहां ठहर सकेंगे। बस, जब ये लोग जाने लगेंगे, तब यही आदमी, जो कुर्सियां लाया है, मुझे इत्तला कर देगा ओर तब मैं आकर इन दोनो साहबो को जेल से बाहर कर दूंगा।"
बस, इतना मुझसे कह कर जेलर साहब ने उस आदमी की ओर देख कर यों कहा,—"रतन, तुम यहीं ठहरना गौर जब ये दोनों साहब जाने लगें तो मुझे तुरन्त खबर करना।"
यों कह कर जेलर साहब तो वहां से चले गए, पर उनका आदमी रतन मेरी कोठरी के आगेवाले बरामदे में बंदूक कन्धे पर घर कर टहलने लगा। वे दोनों भले आदमी, अर्थात् बैरिसर साहब और जासूस साहब एक कुर्सी पर बैठ गए और मैं