बारहवां परिच्छेद ।
हवालात ।
"अवश्यभव्येष्वनवग्रहग्राहा,
यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा।
तृणेन वात्येन तयानुगम्यते,
जनस्य चित्तेन भृशावशात्मना ॥
बाहर आने पर मैने क्या देखा कि मेरी गाड़ी में मेरे ही दो बैल जुते हुए हैं ! वे मुझे देखते ही मारे आनन्द के गर्दन हिलाने लगे ! मैने उन दोनों बैलों की पीठ थपथपाई और गाड़ी पर सवार हो गई। फिर रास अपने हाथ में लेकर मैने एक ओर को कूच किया।
जिस समय मैने गाड़ी हांकी थी उस समय पौ फट चुकी थी और झुरपुटा हो आया था। बस, उसी उषःकाल में मैने यात्रा की ओर आध घन्टे में अपने गांव के बाहर मैं जा पहुंची। बस समय गांच में चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था और रास्ते। मुझे कोई भी नहीं मिला था। यह देख कर मैं गंगा-किनारे पहुंची फिर गाड़ी से उतर कर मैने गंगास्नान किया और तीन अंजुल जल अपने पिता के लिये दिया। फिर मैं एक घन्टे तक यहीं बैर हुई अपने पिता के लिये खूब रोई। इतने में जब मेरी वद गीली धोती सुख गई, तब मैने वह गाडी दूसरे गांव की और बढ़ाई।
जिधर मैने गाड़ी चढ़ाई थी, वह गांव मेरे गांव से तीन । चार कोस दूर था और उसमें एक पुलिस की चौकी थी। हर चौकी पर मैं जाया चाहती थी। सो, दस बजाते बजते मैं उस चौकी पर पहुंच गई और गाड़ी से उतर कर एक 'गोंडइत' (ग के चौकीदार ) से यों पूछने लगी कि,-"थानेदार कहां हैं ?"