पृष्ठ:खूनी औरत का सात ख़ून.djvu/५१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ४९ )
साथ खून।


तो खोलते जाओ ?"

यह सुन और यों कहकर वह तेजी के साथ मेरे सामने से चल दिया कि,-"नहीं, अभी ठहरो । मैं जब उन सालों को विदा करके लौटुंगा, तब तुम्हारे हाथ पैर खोलूंगा, क्योंकि अगर अभी मैं तुम्हारे बन्धन खोल दूंगा, तो शायद तुम मुझे अंगूठा दिखाकर कहीं खिसक दोगी।

बस, वह तो चला गया, पर मैं मन ही मन यों सोचने लगी कि यह कंबल कालू अपने उन तीनो यारों को कैसे यहांसे विदा करेगा! और साथ ही यह भी मैं विचारने लगी कि इस जबरदस्त कालू से मैं क्यों कर अपना पिण्ड छुड़ाऊंगी ! मैने सो मन ही मन यह सोचकर कालू से वह बात कही थी कि, 'यदि यह थोड़ी देर के लिये मेरे पास अकेले में रह जाय तो मैं उसे फुसलाकर अपने हाथ-पैर खुलवा लूं और सष मौका पाकर यहां भागू,' पर मेरा मन-चीता न होसका और मैं उसी खाट पर पड़ी रही । पड़ी तो रही, पर पड़ी पड़ी मी मैं अपने हाथ में बंधे हुए चीथड़े को दांतों से सोचने लगी । इस काम में मुझे परमेश्वर ने बड़ी सहायता दी; क्योंकि हाथ के पन्धन को मैने दांतों से फार फार फर स्त्रोल डाला और तब मैं उठकर खाट पर बैठ गई । ठीक उही समय मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो रसोईघर में कुछ लड़ाई-झगड़ा होरहा है! अस्तु; मैं फिर उधर ध्यान न देकर जल्दी जल्दी अपने पैर का बन्धन खोलने लगो । परन्तु इसमें मुझे कुछ देर लगी, क्योंकि यह बंधन रस्सी का था और पड़ी पोदीगांठ लगाई गई थी। फिन्तु फिर भी मुझसे जहांतक होस का, मैने अपने पैरों का बन्धन भी खोल डाला और सब खाट के नीचे उतर कर अपने कुलदेवता को प्रणाम किया।