पृष्ठ:खूनी औरत का सात ख़ून.djvu/२७

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छठवां परिच्छेद।

सज्जनता।

"किम खित्रं यत्सम्तः परानुग्रहततामाः ।
म हि स्वदेशशैत्याय ज्ञानन्ते चन्द्रुमा ।।"

(कालिदासः)
 

पर, उस बात पर मैं अधिक ध्यान न देंने पाई, क्योकि भाईजी ने अबकी बार जरा बिगड़कर यों कहा,--" बस, बहुत हुआ, एक लड़की को अपने बड़ों के आगे इतना हठ और इतनी दिठाई कभी करनी चाहिए, इसलिये अब मैं तुम्हें यह आज्ञा देता हूँ कि तुम इन दोनों कंबलों में से एक को बिछा लो और दूसरे को मोड़ कर सहूलियत से अपनी कोठरी में बैठ जाओ।

यह सुनकर फिर मैने कुछ भी न कहा और चुपचाप एक कंपल को धर्ती में डालकर मैं उस पर बैठ गई और दूसरे को मजे में मैने ओढ़ लिया। सचमुच, उस समय मुझे बड़ा जाड़ा लग रहा था, क्योंकि सबेरे मैं ठंढे पानी से खूब नहाई थी कि नहीं ! इसलिये भाईजी की इस रोट-फटकार को मैने मन ही मन अनेक धन्यवाद दिए और सर्दी से कापते हुए कलेजे को धोरे धीरे गरम किया।

भाईजी ने कहा,--"तुमने जो अपने इजहार में यह लिखाया था कि, 'मेरे घर की सारी चीजें कालू वगैरह लूट लेगए थे। इस बात की जांच मैंने तुम्हारे गांव पर जाकर की थी, पर इस बात का ठीक ठीक पता मुझे किसीने भी न दिया । हां, तुम्हारी इस बात को तुम्हारे चचा ने जरूर सकारा था और इन्होंने मुझसे यों कहा था कि, 'मैं जब इस घर में घुसा तब इसमें एक बुहारी भी नहीं पाई गई थी। तुम्हारे चारों बैल भी गायब हैं और इनका कुछ भी पता नहीं है । जिस गाड़ी पर चढ़कर तुम अपने घर से