साथ तुमसे मिलने जाना चाहते थे, पर यह समझकर मैं उन्हें अपने साथ नहीं लाया कि एक बेर इस बारे में तुमसे पूछ लू तब उनसे तुम्हें मिलाऊ । बस, मेरे इतने कहने-सुनने का मतलब केवल यही है कि तुम्हारे पिता का श्राद्ध इत्यादि होगया है, इसलिये अब तुम उस बात की चिन्ता छोड़ो।"
भाईजी की ये बातें सुनकर कुछ देर तक तो मैं चुप रही, फिर यों कहने लगी,--सच मुच, मेरे पिता का श्राद्ध होगया, यह सुन कर मुझे ऐसा संतोष हुआ! वास्तव में, मेरे पिता के श्राद्ध का अधिकार मेरे चाचा को ही था। सो, ऐसा करके उन्होंने बहुत ही अच्छा काम किया। क्योंकि मैं पुत्री हूँ, इसलिये मेरा किया हुआ श्राद्ध कदाचित शास्त्रानुकूल न होता । अस्तु और यह बात सुनकर भी मुझे बड़ा सन्तोष हुआ कि मेरे चाचा ने मेरे पितो की बची बचाई जगह पर दखलकर लिया; क्योंकि ये कुटुम्बी हैं और गोत्री भी है, इसलिये मेरे पिता की सम्पत्ति के वे ही सच्चे अधिकारी हैं। सो, अधिकारी ने अपना अधिकार पाया, यह बहुत ही अच्छी बात हुई । क्योंकि शास्त्र के अनुसार अपने पिता की सम्पत्ति पर पुत्री का कोई अधिकार नहीं होता। खैर, यह सब तो हुआ, पर फिर भी आपलोगों से मैं हाथ जोड़कर यही विनती करती हूं कि जबतक मैं फांसी से छुटकारा न पाऊं और जेल से बाहर न होऊ, तबतक आपलोग मुझे उसी अवस्था में पड़ी रहने दें, जिस दशा में कि मैं इतने दिनों से जेल में रह रही हूँ। बस, मेरी इस प्रार्थना को आप कृपाकर स्वीकार कीजिए, तभी मुझे 'सच्चा और हार्दिक सुख सन्तोष मिलेगा।"
इस पर बारिस्टर साहब तो कुछ भी न बोले, पर भाई 'दयालसिंहजी बड़ा आग्रह करने लगे। पर अब मैने किसी तरह भी उनकी बात न मानी, तो उन्होंने बहुत ही दुखी होकर जेलर साहब से यों कहा कि,-" अच्छा, साहब ! जिसमें यह लड़की