पांचवां परिच्छेद।
सहायक।
"ताद्वशी आयते बुद्धिर्थ्यवसायोऽपि सादृशः।
सहायास्तादृशाश्चैव यादृशी भवितव्यता"
थोड़ी ही देर पीछे ग्यारह बजे और जेलर साहब के साथ भाई दयालसिंहजी और बारिस्टर साहब आ पहुंचे । जेलर साहब ने मेरे कैदखाने का दरवाजा खोल दिया और वे तीनों उस कोठरी के बाहर खड़े होगए । उन लोगों को देख कर मैं भी उठकर खड़ी होगई थी।
मुझे वैसे ढङ्ग से सिर झुकाए हुए बड़ी देखकर भाई दयालसिंहजी ने मुझसे यों कहा,- बेटी, दुलारी ! तुम्हारी सारी बातें जेलर साहब की जवानी मुझे अभी मालूम हुई हैं। तुमने जो कुछ कहा, वह बहुत ही ठीक कहा; पर यहां पर मैं एक ऐसी बात तुम्हें सुनाऊंगा, जिसे सुनकर तुम्हें कुछ संतोष होगा और तब फिर तुमको इतने व्रत या नियम करने की कोई आवश्यकता न रह जायगी।"
मैंने पूछा,--"तो यह बात कौन सी है ? "
वे कहने लगे, हां, यह बात तुम जानती हो कि तुम्हारे दूर के नाते के कोई चचा भी हैं ? "
यह सुनकर मैंने तुरन्त कहा,--"हां,हैं; वे कानपुर के पास ही एक गांव में रहते हैं और उनका नाम रघुनाथप्रसाद तिवारी है। एक बेर वे मेरे यहां आए थे, तब मैंने उन्हें देखा था, पर इस बात को बहुत दिन होगए हैं । ये मेरे यहां किस काम के लिये आए थे, यह तो मुझे नहीं मालूम, पर इतना मुझे अच्छी तरह याद है कि एक दिन मेरे पिता के साथ उनकी बड़ी लड़ाई हुई थी और