और दूसरे को ओढ़कर यह जाड़े की रात काट डालूंगी। हैं ! मेरे फेर देने पर भी, फिर यहां पर ये दो दो नई धोतियां क्यों लाकर रक्खी गई हैं! हटाइए महाशय, इन सब चीजों को यहांसे हटाइए; क्योंकि ये सब मेरे काम में कभी भी नहीं आने की।"
मेरी ऐसी और इतनी लंबी-चौड़ी बातें सुनसर जेलर साहब टुकुर टुकुर मेरा मुहं निहारने लगे और जरा ठहरकर बोले, ---"बेटी, दुलारी ! तुम तो एक अनोखी लड़की हो ! अरे, भाई ! आज यह जो कुछ तुम्हारे लिये किया गया है, वह सब भाई दयालसिंह के हुकुम और बारिष्टर दीनानाथ के खर्च से किया गया है; और ऐसा करने की आज्ञा वे लोग आला अफ़सरों से ले चुके हैं । इसलिये अब तुमको यही उचित है कि तुम जादे हठ न करो और अपने सहायकों की की हुई इस सहायता को स्वीकार कर लो।"
मैं बोली,-" नहीं, महाशय ! यह कभी नहीं होने का; क्योंकि
अभी तक इस बात का कोई निश्चय नहीं हुआ है कि मेरा क्या
परिणाम होगा, अर्थात् मैं फांसी पड़ूगी, या इस सांसत से
छुटकारा पाऊंगी। तो, जब कि अभी इसी बात का कोई मिश्रय
महीं है, तब मैं अब इस चला चली की बेला इन सुख के सामानों को जेल के अन्दर कदापि ग्रहण नहीं करूंगी। इसमें और भी एक बात है, और वह यह है कि मेरे पिता को मेरे यहांके दुष्ट नौकरों ने केवल गंगा में बहा दिया है और उनके उत्तरकाल का कुछ भी-क्रिया-कर्म नहीं हुआ है। ऐसी अवस्था में, इस जेल के अन्दर रह कर भी मैं इन सब चीजों को कैसे छू सकती हूं? सुनिए महाशय, मैं जो केवल दूध पीकर अपने प्राणों की रक्षा कर रही हूं, यह क्यों ? सुनिए, इसका एक कारण है और वह यह है कि मैंने मन ही मन ऐसी प्रतिज्ञा की है और ऐसा ब्रत किया है कि यदि भाग्यों से मैं इस जेल से जीती-जागती छूट गई तो घर जाकर पहिले मैं अपने पिता का विधि पूर्वक श्राद्ध करूंगी, उसके बाद अन्न