से निकाली जाकर एक साफ, अच्छी और बड़ी कोठरी में रक्खी जाय। उसे अब बेड़ी-हथकड़ी हर्गिज़ न पहनाई जाय और उसके बैठने के लिये कुर्सी या चौकी और सोने के लिये चारपाई दीजाय। उसके पहिरने मोढ़ने और खाने-पीगे के बारे में भाई दयालसिंह जैसी राय दें,वैसा ही किया जाय । हां, उसकी कोठरी के जंगलेदार दरवाजे में ताला जरूर लगाया जाय और पहरे का भी काफी इन्तजाम रहे पर ऐसा कभी न होगे पावे कि उस कैदी औरत को कुछ भी तकलीफ़ हो । अगर भाई दयालसिंह उस औरत के पहिरने-ओढ़ने या खाने-पीने के लिये कुछ दान के तौर पर दें, तो यह जरूर ले लिया जाय भौर भाईदयालसिंह और बारिस्टर दीनानाथ जब चाहें, उतनी देर तक वे उस कैदी औरत से मिल सके,जितनी देर तक, वे चाहें, उतनी देर तक वे उस औरत के पास बेरोक टीफ रह सकें और उससे बातचीत कर सकें।' इत्यादि । लो, सुना तुमने ? मंजिष्टर साहब के हुक्म की बानगी देखी तुमने ? अब यह सब देख सुनकर तो यह बात तुम भलीभांति समझ गई होगी कि भाई दयालसिंह कोई मामूली आदमी नहीं हैं और वे भड़ी भारी ताकत रखते हैं।"
जेलरसाहब यहां तक कह चुके थे कि इतने ही में वहां पर दो औरतें आगई। उनकी ओर देखकर उन्होंने मेरी कालकोठरी का दरवाजा खोला और मुझसे यों कहा,---"दुलारी, ये दोनो भी कैदी औरतें हैं, लेकिन जात फी हिन्दू अर्थात् कहारिने हैं। आज से ये तुम्हारी टहल-चाकरी करेंगी, इसलिये इनके साथ तुम कुएं पर जाओ । ये दोनो तुम्हें अच्छी तरह नहला-धुला कर उस कोठरी में ले आवेंगी, जिसमें कि अबसे तुम्हें रहना होगा।"
यों कहकर जेलर साहब ने एक नई, मोटी और सफेद धोती
उन दोनो औरतों में से एक के हाथ में देदी और मुझे उन दोनो
के साथ विंदा करना चाहा । पर जरा मैं ठिठकी रही और जेलर