सत्ताईसवां परिच्छेद।
छुटकारा।
"निन्दतु नीति निपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदम् न धीराः॥"
(भर्त्तृहरिः)
इसी भांति और भी कई दिन बीत गए थे। यहां तक कि आधे चैत के साथ ही साथ यह अभागा, खासकर मेरे लिये, साल भी बीत गया था और नया संवत् प्रारम्भ होगया था। इस नए बरस के भी चार नवरात्र बीत गए थे और आज मार्च के महीने की इकतीसवीं तारीख थी।
कल पुन्नी और मुन्नी इस जेल से बिदा होंगी, इस बात की मुझे बड़ी खुशी थी, पर उन दोनों को इससे आनन्द नहीं, वरन बहुत ही दुःख हो रहा था। क्यों कि एक तो वे दोनों मुझे छोड़ना नहीं चाहती थीं, दूसरे दुष्ट लूकीलाल का डर उनकी जान लिये डालता था। यद्यपि मैं उन दोनों को बहुत कुछ समझाती-बुझाती थी, तो भी वे रो रोकर अपनी जान के साथ ही साथ मेरे प्राण को भी हैरान-परेशान किए डालती थीं।
यों ही हम सब बैठी हुई रो-धो रही थी कि इतने ही में जेलर साहब ने आकर उन दोनों से कहा,—"तुम्हारे मालिक मकान तुमसे मिलने आए हैं। अगर तुम उनसे मिलना चाहो तो मिल सकती हो।
यह सुनकर उन दोनों के कुछ कहने के पहिले ही मैंने जेलर साहब से यों कहा,—"क्या आप कृपाकर उनको यहीं बुला सकते