छब्बीसवां परिच्छेद।
जैसे को तैसा।
"खलानां कण्टकानां च,
द्विविधैव प्रतिक्रिया।
उपानन्मुखसंगो वा,
"दूरतो वा विसर्जनम्॥"
(सुभाषितम्ः)
यह रात बड़े मजे में कटी और मैंने पुन्नी और मुन्नी को यह बात भली भांति समझा दी कि काने-कलूटे लूकीलाल के मुंह में किस तरह लूका लगाना चाहिए।
दूसरे दिन, बारह बजे के समय जेलर साहब हम तीनों को एक कोठरी में ले गए। वहीं एक आलमारी की आड़ में मैं छिपकर खड़ी होगई और पुन्नी—मुन्नी ज़मीन में बैठ गईं। तब जेलर साहब ने लूकीलाल को बुलाकर उससे कहा,—"सिर्फ पन्द्रह मिनट का समय आपको दिया जाता है।"
यों कहकर जेलर साहब ज़रा हटकर टहलने लगे और लुकीलाल ने मोछों पर ताव दे और बहुत ही बुरी तरह घूर कर उन दोनों बहिनों से यों कहा,—"कहो, बीबियो! क्या हाल चाल है!"
यह सुन मुन्नी तो कुछ न बोली, पर पुन्नी ने यों कहा,—"हाल भी अच्छा है, और चाल भी ठीक है।"
लूकी—"हूं! कहो, अब क्या इरादा है? पहिली अप्रैल को तुम दोनों छूट जाओगी। बोलो अबतो मेरी दिली ख्वाहिश तुम दोनों पूरी करोगी न?"
पुनी ने कहा,—"भला, यह तो बताओ कि तुमने मेरी कोठरी में घुसकर अपनी चांदी की डब्बी क्यों रखदी थी?"