समझाये देता हूं। सुनो,—"यहां से जाकर भाई दयालसिंह और बारिष्टर दीनानाथ रसूलपुर के थाने पर पहुंचे और बहुत कुछ कोशिश करने के बाद अबकी बेर वे दोनों दियानत हुसेन और रामदयाल चौकीदार के पेट से सच्ची बात निकाल सके। इस बार उन दोनों ने वे कुल बातें कबूल करलीं, जो तुमने अपने बयान में कही हैं। इसके बाद जासूल साहब और बारिष्टर साहब कानपुर पहुंचे, वहां जाने पर उन्हें मालूम हुआ कि कोतवाल साहब तो प्लेग की भेंट होगये, दरोगाजी एक रंडी के फंदे में पड़ने के सबब नौकरी से अलग किये गये और उनका साला अमीर पहरेदार भी नौकरी छोड़कर कहीं चल दिया। हां, रघुनाथसिंह और शिवराम तिवारी के बयानों से तुम्हारी बातें सच्च साबित होगंई। इसके बाद जासूसी महकमे के छोटे साहब ने जो यहां पर तुम्हारा वयान लेने आये थे, बहुत कुछ टीका-टिप्पणी लिखकर अपने अफसर बड़े साहब को दी और बड़े साहब ने उस तहरीर पर अपनी जोरदार राय लिखकर उसे हाईकोर्ट के जजों के पास भेज दिया। फकत इतना ही नहीं, बरन् इस बात का भी अंदाजा लग गया है कि फैसला ठीकही होगा। मुकदमा नम्बर पर आगया हैं और आशा है कि फैसला बहुत जल्द सुना दिया जायगा। सारा इन्तजाम कर देने के बाद भाई दयालसिंह तो अपने घर घेल गये हैं और बारिष्टर दीनानाथ मुकदमे के फैसला होने तक इलाहाबाद से हटना मुनासिब नहीं समझते!" इतना लिखने के बाद बारिटर साहब तुम्हें यह इत्मीनान दिलाते हैं कि दुलारी को अब ज़रा भी डरना या घबराना न चाहिये!"
इतना कहने के बाद जेलर साहब ने उस पत्र को लिफाफे के अन्दर रखकर उठते उठते यों कहा,—"बेटी, दुलारी! यह तो मैं पहिले ही से कहता आरहा हूँ कि जब ऐसे जबर्दस्त जासूस और बरिष्ट तुम्हारे लिये उठ खड़े हुए हैं, तब तुमको जरा भी न