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खूनी औरत का


कम्बल ले आओ।"

यह सुनकर वे दोनों बड़ी मँगन हुई और दौडी हुई जाकर अपने ओढ़ने बिछाने के कंबल उठा लाई।

उनके आने पर जेलर साहब ने उनसे पूछा,—"तुम दोनों खा-पी चुकी हो न?"

इस पर उन दोनों ने—"हां" कहा। तब जेलर साहब ने उन दोनों को मेरी कोठरी के भीतर करके उसके दरवाजे में ताला लगा,दिया और उन दोनों से कहा,—"दुलारी की तुम दोनों खिदमत करना।"

उस समय मेरी कोठरी के आगे वाले बरामदे में लटकती हुई लालटेन जलादी गई थी और रतन कांस्टेबिल के बदले में दूसरा सिपाही आकर कन्धे पर बन्दूक धरे हुए बाहर टहलने लग गया था।"

उस कांस्टेबिल की तरफ देखकर जेलर साहब ने यों कहा,—"बुझावन सिंह, देखना, इस लड़की दुलारी को तुम टोकना-ओकना मत, क्योंकि यह अपनी इन दोनों हम उम्र कहारियों से बात चीत करके अपना जी बहलावैगी। और सुनो, जब तुम्हारा पहरा बदले, तब यही बात तुम अपने जोड़ीदार को भी समझा देना।"

यों कहकर जेलर साहब ने मेरी कोठरी के ताले की ताली बुझावनसिंह के हाथ में देकर फिर यों कहा,—"लो इस ताली को तुम अपने पास रक्खो। अगर इन सबों को रात के बक्त कुछ ज़रूरत पड़े तो तुम ताला खोलकर इन्हें कोठरी से बाहर निकलने देना और यही बात अपने जोडीदार से भी ताली देकर समझा देना।"

यह सुन और ताली लेकर बुझावनसिंह ने कहा,—"बहुत अच्छा, हुजूर! ऐसाही किया जायगा।"