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सात खून।

 

तेईसवां परिच्छेद।
पुन्नी—मुन्नी।
"सेविकां त्वां न जानामि,
सत्यं जानीहि सुन्दरि।
स्यान्मे सहचरी नित्यं,
त्वद्विधा शीलशालिनी॥

(कथासरित्सागरे.)

उन सब सज्जनों के जाने के कुछही देर बाद पहिले कही हुई उन्हीं दोनों कहारियों को साथ लिये हुए जेलर साहब मेरे पास आए और बोले,—"दुलारी, अब तुम जरा न घबराओ और परमेश्वर पर भरोसा रक्खो। उस दीनानाथ ने एक ऐसे दीनानाथ को तुम्हारी मदद के लिये भेजा है कि वे अवश्य ही तुम्हारा इस संकट से उद्धार करेंगे। खैर, अब तुम इन दोनों कहारियों के साथ जाकर ज़रूरी कामों से छुट्टी पा आओ।"

यह सुनकर मैं उठी और उन दोनों के साथ जाकर और मामूली कामों से छुट्टी पाकर थोड़ी ही देर में लौट आई। तब तक जेलर साहब वहीं पर ठहरे हुए थे। मेरे आने पर उन कहारियों में से एक मेरी बालटी ले जाकर उसमें ताजा पानी भरलाई और दूसरी जाकर एक कोरी हंड़िया में दूध ले आई। मैंने उठ कर दूध पीया और कुल्ला-उल्ला करके जेलर साहब से यों कहा,—"जेलर साहब, यदि कोई हरज न हो तो इन दोनों कहारियों को मेरे पास छोड़ दीजिये, क्योंकि इनके पास रहने से बोलने चालने से ज़रा जी बहला रहैगा।"

यह सुनकर जेलर साहब ने कहा,—"अच्छी बात है, ये तो तुम्हारी टहल चाकरी के लिये मुकर्रर ही की गई हैं।"

और फिर उन दोनों की ओर देखकर उन्होंने कहा, पुन्नी–मुन्नी! जानो, तुम दोनों अपने ओढ़ने और बिछाने के