यहां तक सुनकर साहब बहादुर ने मुझ से कहा—"ठहरो;" और इसके बाद भाई दयालसिंह से कुछ अंगरेजी में कहा; जिसे सुन कर भाईजी ने मुझसे यों कहा,—"दुलारी! बस; अब हमलोगों का काम बन गया, इस लिये व्यर्थ जज के यहां की बातों को फिर से दुहराने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जज के सामने भी वेही सब बातें हुईं, जो मजिस्ट्रेट के सामने हो चुकी थीं और अन्त में जज ने तुम्हें फांसी की सज़ा दी। इस लिये अब फिर उन सब बातों के कहने की कोई ज़रूरत नहीं है। हां, कुछ और बात हुई हो तो उसे कहो।"
यह सुनकर मैंने कहा,—"अब इसके आगे तो हुजूर; वही बात हुई, जो ऐसे मामलों में हुआ करती है। अर्थात् कई दिनों तक मुकद्दमे की पेशियां हुईं, सरकारी वकील और जज ने मुझसे बड़ी कड़ी जिरहें की और अन्तमें मुझे "खूनी औरत" करार देकर जज ने फांसी का हुक्म सुना दिया! बस, मैं उस दिन से फिर जेल के बाहर न की गई और यहीं पड़ी पड़ी अपनी जिन्दगी के दिन पूरे कर रही हूं। अच्छा, हुजूर! अब मुझे क्या हुकुम होता है?"
यह सुनकर साहब बहादुर ने भाई दयालसिंह से अंगरेजी में कुछ कहा, जिसे सुनकर उन्होंने मुझ से यों कहा—"बेटी, दुलारी! अब हमलोग यहां से जाते हैं। इस मामले पर खूब ग़ौर करके तुम्हें कल या परसों इस बात की खबर की जायगी कि तुम्हारी रिहाई हो सकती है, या नहीं।" इतना कहकर वे उठ खड़े हुए, साहब भी उठ कर एक तरफ को बढ़े और बारिस्टर साहब ने उठते उठते मुझसे यह कहा—"कल तुम्हारे चचा साहब को लेकर मैं आऊंगा।„
इसका जवाब मैंने केवल—“बहुत अच्छा–„ कहकर दिया और वे सब चले गए।