बाईसवां परिच्छेद।
जज।
"अपराधिनमपि राजा,
क्वचिदपि मुञ्चतु न पापमिह मन्ये ।
किन्तु निरपराधिनमुत,
महदानोत्ययशो हि दण्ड यन्निति ॥"
एक दिन में फिर जेल से निकाली जाकर गाड़ी पर सवार कराई शोर कचहरी पहुंचाई गई।
कचहरी में उस दिन में जिन हाकिम के सामने पेश की गई,- सुना कि, येही जज साहब हैं।'
वे एक अंगरेज मालूम पड़ते थे और नौ जवान आदमी थे । उन के सामने जब मैं पेश की गई तो उन्होंने मेरा नाम-धाम पूछकर मुझ से यह जानना चाहा कि, 'मेरा कोई वकील है कि नहीं? ' इस पर जब मैंने उन्हें यह बात साफ तौर पर समझादी कि, 'मेरा न तो कोई वकील-मुखतार है और न नै किसी को इल मुकदमे की पैरवी के लिये खड़ा ही करना चाहती हूं। हां, यह मैं जरूर चाहती हूं कि पुलिस के अंगरेज अफसर के सामने जो मैंने ठीक ठीक इज़हार दिया है, उस पर गौर करके मेरे लिये इन्साफ़ किया जाय ।
यह सुनकर उन्होंने यह कहा कि, "अगर तुम चाहो तो सरकार की ओर से तुम्हारे मुकद्दमे की पैरवी के लिये एक वकील मुकर्रर कर दिया जाय,पर जब मैंने इस बात को न सकारा, तब मुकदमे की कार्रवाई शुरू की गई।
पहिले कोतवाल साहब और बाद उनके रसूलपुर व कानपुर के कुछ कांस्टेविलों के इजहार हुए । इसके बाद उन पुलिसके बड़े साहब का भी बयान हुआ, जिन्होंने मुझे रसूलपुर थानेपर गिरफ्तार किया था।"