बीसवां परिच्छेद।
जेल में!
"येन यत्रैव भोक्तव्यं सुखं वा दुःखमेव वा।
स तत्र वध्वा रज्वेव बलाद्दैवेन नीयते॥"
(व्यासः)
हे परमेश्वर! कोतवाल साहब की यह अद्भुत लीला देख कर मै तो भैचक सी रह गई! पर तुरत ही मैंने भगवती का स्मरण करके मजिष्टर साहब की ओर देख कर यों कहा,—"हुजूर, मुझ अनाथ की भी एक अरज सुन– – – –"
अरररररर!!! इतना सुनते ही हाकिम ने मुझे बड़े जोर से डांट बताई और यों कहा,—"तुम अभी चुप रहो। जब तुमसे पूछा जाय, तब बोलना।"
यह सुन कर फिर मैं कुछ न बोली और टकटकी बांध और कान खड़े करके अदालत की कार्रवाई देखने-सुनने लगी। उस समय वह पड़ा कमरा आदमियों के मारे भर उठा था और उसके अन्दर जितने लोग थे, वे भी मेरी ओर एक अनोखी दृष्टि से देख रहे थे! मैंने देखा कि उस भीड़ में काला और नाटा सा एक काना आदमी भी था, जो काले रंग का चोगा पहिरे, सिर पर शमला धरे और नाक पर चश्मा लगाए, अजब तरह से मेरी ओर निहार रहा था!!!
अस्तु, यह सब देख-सुन फर मैं हाकिम की ओर देखने और भगवती का स्मरण करने लगी।
बस कमरे में बड़ी भीड़ इकट्ठी होगई थी, इसलिये हाकिम अपने अरदलियों को यह हुकम दिया कि,—"वकील-मुखतारों को छोड़कर बाकी के सब आदमियों को बाहर निकाल दो।"
हाकिम के मुहं से इतना निकलते ही उस कमरे से "भर्र-भर्र" लोग निकलने और भागने लगे और अरदलियों को विशेष कष्ट