'यहांसे भागना ठीक न होगा।' यों सोचकर मैं उस कोठरी से बाहर हुई और उस कोठरी के पास पहुंची, जिसमें रामदयाल बगैरह छओं चौकीदार बैठे हुए आग ताप रहे थे। मुझे अपनी कोठरी के दरवाजे पर देख और मेरी जुबानी अबदुल्ला और हींगन के मारे जाने की बात सुनकर मे सब इस कदर घसरा उठे कि, बस चटपट मुझे उसी (अपनी) कोठरी में बन्द करके सब के सब दौड़ते हुए अबदुल्ला की कोठरी की ओर गए। इसके बाद उस रात को मुझे किसी चौकीदार ने न छेड़ा और मैं भी उस कोठरी की कुण्डी भीतर से बंद करके बही पर पड़ी हुई एक चारपाई पर पड़कर सो गई। सुबह जब दियामतहुसेन नाम के चौकीदार ने मुझे जगाया, तब मेरी नींद खुली और मैं चारपाई पर से उठकर उसी कोठरी में की एक खिड़की के आगे एक भूढ़ा रखकर उसी पर बैठ गई। थोड़ी देर के बाद मैने एक भरी हुई बन्दूक और एक तल्वार लेकर अपने मूढ़े के अगल-बगल खड़ी कर ली थी। कुछ दिन निकलने पर आप एक अंगरेज अफसर ने मेरी कोठरी के आगे आकर मुझे कुण्डी खोलकर बाहर निकलने को कहा, तब मैं बाहर निकली और निकलते ही मेरे हाथों में कानपुर के कोतवाल साहब ने हथकड़ी भर दी। इसके बाद उन साहब बहादूर ने मेरा बयान लिया, जिसे कोतवाल साहब ने लिखा। वह बयान मैंने ठीक नही लिखवाया था, इसलिये कानपुर की कोतवाली में आने पर अपनी रजामन्दी से मैंने यह बयान कोतवाल साहब को सही सही लिखा दिया और इस पर भपने अंगूठे की छाप भी कर दी।
यों कहकर सत्यव्रत कोतवाल साहब ने उस बादामी रंग के कागजों को पेशकार के हाथ में दे दिया और यों कहा कि,—"इन कागजों में इन खूनों की पूरी पूरी तहकीकात की कुल कार्रवाई दर्ज हैं, और यह खूनी औरत सात खून करने के जुर्म में हुजूर के रू-ब-रू पेश है।"